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________________ २९४६ भगवती सूत्र-श. २१ वर्ग १ उ. १ गालि आदि के मूल की उत्पत्ति शाल्यादि के मूल में उत्पन्न होने वाले जीव की उत्पत्ति के लिये प्रज्ञापना सूत्र के छठे व्युत्क्रान्ति पद का अतिदेश किया गया है । वहां वनस्पति में देवों की उत्पत्ति बतलाई गई है । इसका आशय यह है कि देव वनस्पति के पुष्प आदि शुभ अंगों में उत्पन्न होते हैं। परन्तु मूल आदि अशुभ अंगों में उत्पन्न नहीं होते। इसीलिये मूल पाठ में कहा है कि‘णवरं देव वज्ज' (देव गति से आ कर मूल आदि में उत्पन्न नहीं होते)। __यद्यपि सामान्यतया वनस्पति में प्रति समय अनन्त उत्पन्न होते हैं, तथापि यहाँ शालि आदि प्रत्येक शरीरी वनस्पति होने से इनमें एक, दो आदि की उत्पत्ति का कथन विरुद्ध नहीं है। उन शालि आदि के जीवों को प्रति समय एक-एक निकाला जाय, तो असंख्य उत्सर्पिणी अवसर्पिणी बीत जाने पर भी वे पूरी तरह नहीं निकाले जा सकते (क्योंकि ऐसा किमी ने किया नहीं और कर भी नहीं सकता)। शालि आदि के जीव ज्ञानावरणीयादि कर्मों के अबन्धक नहीं है, बन्धक हैं। कभी उनमें एक जीव हो, तो वह एक जीव ज्ञानावरणीय आदि का बन्धक होता है और कदाचित् बहुत जीव हों, तो बहुत जीव बन्धक होते हैं, इत्यादि। कृष्ण-लेश्या, नील-लेश्या, कापोत-लेश्या, इन तीन लेश्या के एकवचन और बहुवचन सम्बन्धी असंयोगी तीन-तीन भंग होने से छह भंग होते हैं । कृष्ण-नील, कृष्ण-कापोत और नील-कापोत ये द्विक संयोगी तीन विकल्प होते हैं । इन प्रत्येक के एक वचन और बहुवचन सम्बन्धी चार-चार भंग होने से बारह भंग होते हैं । त्रिक संयोगी एक वचन और बहुवचन सम्बन्धी आठ भंग होते हैं । इस प्रकार ये कुल मिला कर छब्बीस भंग होते हैं। जघन्य दो भव और उत्कृष्ट असंख्यात भव तक गमनागमन की स्थिति है। शाल्यादि जीवों के वेदना, कषाय और मरण-ये तीन समुद्घात होती हैं। ये समुद्घात कर के भी मरते हैं और समुद्घात किये बिना भी मरते हैं। मर कर ये मनुष्य और तिर्यच गति में जाते हैं, इत्यादि वर्णन ग्यारहवें शतक के प्रथम उद्देशक से जान लेना चाहिये । ॥ इक्कीसवें शतक के पहले वर्ग का पहला उद्देशक सम्पूर्ण ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004091
Book TitleBhagvati Sutra Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages566
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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