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भगवती सूत्र-श. २० उ. १० सोपक्रम-निरूपक्रम आयुष्य
है, परन्तु जाते समय दो उत्पात से वहां पहुँचता है । जंघाचारण की लब्धि का ज्यों-ज्यों प्रयोग होता हैं, त्यों-त्यों वह अल्प सामर्थ्य वाली होती जाती है । इसलिये वह जाते समय तो एक ही उत्पात से वहाँ पहुँच जाता है, परन्तु लौटते समय दो उत्पात से पहुंचता है ।
जंघाचारण और विद्याचारण लब्धि वाले मुनि जब मानुषोत्तर पर्वत, नन्दीश्वर द्वीप आदि में पहुंचते हैं, तब वहां चैत्य वन्दन करते हैं अर्थात् ज्ञानियों की स्तुति करते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि नन्दीश्वर द्वीप आदि की रचना का वर्णन उन लब्धिधारी मुनियों ने ज्ञानियों से सुना था अथवा आगमों से जाना था, वैसी ही रचना को साक्षात् देखते हैं, तब वे शानियों की स्तुति करते हैं । यहां मूलपाठ में जो 'चेइयाई' (चैत्य) शब्द दिया है, उसका अर्थ 'ज्ञानी' है और 'वंदइ' का अर्थ-स्तुति करना है, क्योंकि-'वैदि अभिवादन स्तुत्योः' के अनुसार 'वदि' धातु का अर्थ स्तुति करना है। यदि चैत्य का अर्थ मन्दिर किया जाय, तो यह अर्थ संगत नहीं होता, क्योंकि मानुषोत्तर पर्वत पर मन्दिरों का वर्णन नहीं है और स्वस्थान अर्थात् जहां से उन्होंने उत्पात किया है, वह भी मन्दिर नहीं है। अतः चैत्य का अर्थ मन्दिर-मूर्ति करना संगत नहीं है, 'ज्ञानी' अर्थ ही संगत है। .
॥ बीसवें शतक का नौवां उद्देशक सम्पूर्ण ॥
शतक २० उद्देशक १०
. सोपक्रम निरुपक्रम आयुष्य
१ प्रश्न-जीवा णं भंते ! किं सोवकमाउया, णिरुवकमाउया ? १ उत्तर-गोयमा ! जीवा सोवकमाउया वि णिरुवकमाउया वि ।
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