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________________ भगवती सूत्र-श. १९ उ. ५ चरम-परम नैरयिक के कर्म-क्रियादि २८०३ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या कारण है कि यावत् परम नैरयिकों की अपेक्षा चरम नैरयिक यावत् अल्पवेदना वाले हैं ? उत्तर-हे गौतम ! स्थिति (आयुष्य) की अपेक्षा यावत् अल्पवेदना वाले होते हैं। ३ प्रश्न-अत्थि णं भंते ! चरमा वि असुरकुमाग परमा वि असुरकुमारा ? ३-उत्तर-एवं चेव, णवरं विवरीयं भाणियव्वं, परमा अप्पकम्मा, चरमा महाकम्मा । सेसं तं चेव जाव थणियकुमारा ताव एवमेव । पुढविकाइया जांव मणुस्सा एए जहा गैरइया । वाणमंतर-जोइसियवेमाणिया जहा असुरकुमारा। कठिन शब्दार्थ-विवरीयं-विपरीत। भावार्थ-३ प्रश्न-हे भगवन् ! असुरकुमार चरम भी होते हैं और परम भी होते हैं ? ...... ३ उत्तर-हां, गौतम ! होते हैं, इसी प्रकार । किंतु यहां पूर्व कथन से विपरीत कहना चाहिये, क्योंकि परम असुरकुमार (अशुभ कर्म की अपेक्षा) अल्पकर्म वाले हैं और चरम असुरकुमार महाकर्म वाले है । शेष पूर्ववत्, यावत् स्तनितकुमार पर्यन्त जानना चाहिए। जिस प्रकार नरयिक के लिए कहा गया है, उसी प्रकार पृथ्वीकायिकादि यावत् मनुष्य तक वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक असुरकुमार के समान हैं। ४ प्रश्न-कइविहा णं भंते ! वेयणा पण्णत्ता ? ४ उत्तर-गोयमा ! दुविहा वेयणा पण्णत्ता । तं जहा-णिदा य Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004091
Book TitleBhagvati Sutra Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages566
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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