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भगवती सूत्र - श. २४ उ. २४ वैमानिक देवों का उपपात
कह कर गौतम स्वामी यावत विचरते हैं ।
'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है'
विवेचन - सनत्कुमार देवलोक में उत्पन्न होने वाले जघन्य स्थिति वाले संजी पंचेन्द्रियतियंच में प्रथम की पांच लेश्याएँ कही हैं, क्योंकि सनत्कुमार देवलोक में उत्पन्न होने वाला जघन्य स्थिति का तिर्यंच अपनी जघन्य स्थिति के कारण कृष्णादि चार लेश्याओं में से किसी एक लेश्या में परिणत हो कर मरण के समय में पद्मलेश्या को प्राप्त कर मरता क्योंकि अगले भव की लेश्या में परिणत होने पर नियम है । इस प्रकार इसके पांच लेश्या होती
हैं । इसी प्रकार माहेन्द्र ब्रह्मलोक के विषय में भी समझना चाहिये । देवलोक में उत्पन्न होने वाले के संहननों के विषय में यह नियम है
है, तब उस देवलोक में उत्पन्न होता है, जीव परभव जाता है - ऐसा सैद्धान्तिक
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छेवट्टेण उगम्मइ चत्तारि उ जाव आइमा कप्पा | वड्ढेज्ज कप्पज्यलं संघयणे कीलियाईए ।
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अर्थात्-छह संहनन वाला प्रथम के चार देवलोक में जाता है। पांचवें और छठे में पांच संहनन वाला, सातवें, आठवें में चार संहनन वाला, नौवें, दसवें, ग्यारहवें और बारहवें में तीन संहनन वाला, नवग्रैवेयक में दो संहनन वाला और अनुत्तरविमान में एक प्रथम संहनन वाला जाता है ।
आणतादि देव, मनुष्य से आ कर ही उत्पन्न होता है और वहां से चव कर मनुष्य में जाता है । इस प्रकार जघन्य तीन भव होते हैं और उत्कृष्ट इसी क्रम से सात भव होते हैं । आणतादि का संवेध - मनुष्य के चार भव सम्बन्धी उत्कृष्ट स्थिति चार पूर्वकोटि और आनत देवलोक की तीन भव सम्बन्धी उत्कृष्ट स्थिति सत्तावन सागरोपम होती है । अतः आणत देव का उत्कृष्ट संवेध चार पूर्व कोटि अधिक सत्तावन सागरोपम का होता है । इसी प्रकार आगे के देवलोक की स्थिति का विचार कर संवेध जानना चाहिये ।
॥ चौवीसवें शतक का चौबीसवाँ उद्देशक सम्पूर्ण ॥ ॥ चौबीसवाँ शतक सम्पूर्ण ॥
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