________________
भगवती सूत्र-श. १८ उ. ३ पाप-कर्म में भेद
२६८९
जाव जे य कजिस्सइ, अस्थि याइ तस्स णाणते ?' ___ उत्तर-मागंदियपुत्ता ! से जहाणामए-केइ पुरिसे धणुं परामुसइ, धणुं परामुसित्ता उसुं परामुसइ, उसुं परामुसित्ता ठाणं ठाइ, ठाणं ठाएत्ता आययकण्णाययं उमुं करेइ, आ०२ करेत्ता उड्ढं वेहासं उद्विहइ, से णूणं मागंदियपुत्ता! तस्स उसुस्स उड्ढं वेहासं उव्वीढस्स समाणस्स एयह वि णाणतं, जाव तं तं भावं परिणमइ वि णाणत्तं ?
उत्तर-हंता भगवं ! एयइ वि णाणत्तं, जाव परिणमइ वि दुणाणत्तं, से तेणटेणं मागंदियपुत्ता ! एवं वुच्चइ-जाव तं तं भावं परिणमइ वि णाणत्तं ।
१८ प्रश्न-णेरइया णं भंते ! पावे कम्मे जे य कडे० ? १८ उत्तर-एवं चेव, णवरं जाव वेमाणियाणं।
कठिन शब्दार्थ-उसुं-बाण को, परामुसइ-ग्रहण करता है, उव्विहइ-फेंकना, एयइकम्पन होना।
भावार्थ--१७ प्रश्न हे भगवन् ! जीव ने जो पापकर्म किया है, यावत् करेगा, उसमें परस्पर कुछ भेद है क्या ?
१७ उत्तर-हां, माकन्दिक पुत्र ! उसमें परस्पर भेद है। प्रश्न-हे भगवन् ! किस प्रकार के भेद हैं ? .
उत्सर-हे माकन्दिक पुत्र ! जैसे कोई पुरुष, धनुष और बाण ले कर अमुक प्रकार के आकार से खड़ा रहे, फिर बाण को कान तक खींचे और ऊपर आकाश में फेंके, तो हे माकन्दिक पुत्र ! आकाश में ऊंचा फेंके हुए उस बाण के कम्पन यावत् परिणाम में भेद है। . .
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org