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भगवती सूत्र - श. १८ उ. २ कार्तिक ( सेठ) श्रेष्ठी - शक्रेन्द्र का पूर्वभव
वियं, जाव धम्ममा इक्खियं । तपणं मुनिसुव्वए अरहा कत्तियं सेट्ठि सहस्सेणं सर्दिध सयमेव पव्वावेइ, जाव धम्ममाइक्खइ - ' एवं देवाशुप्पिया ! गंतव्वं, एवं चिट्टियव्वं, जाव संजमियव्वं ।'
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भावार्थ - ६ - कार्तिक सेठ ने गंगदत्त के समान विपुल अशनादि तैयार करवाये यावत् मित्र ज्ञाति परिवार एवं ज्येष्ठ पुत्र तथा एक हजार आठ afrat द्वारा अनुसरण किया जाता हुआ सर्व ऋद्धि से युक्त कार्तिक सेठ यावत् वाद्यों के घोषपूर्वक, गंगदत्त के समान निकला और भगवान् मुनिसुव्रत स्वामी के समीप आ कर इस प्रकार बोला - "हे भगवन् ! यह संसार चारों ओर से जल रहा है । भगवन् ! यह संसार अत्यन्त प्रज्वलित हो रहा है, चारों ओर से अत्यन्त प्रज्वलित हो रहा है। मैं ऐसे प्रज्वलित संसार को त्याग कर इन एक हजार आठ वणिक मित्रों सहित आपसे प्रव्रज्या लेना चाहता हूं और आप से धर्म सुनना चाहता हूं ।"
श्री मुनिसुव्रतस्वामी ने कार्तिक सेठ और एक हजार आठ वणिकों को "प्रवज्या दी यावत् धर्म सुनाया - "हे देवानुप्रियो ! इस प्रकार चलना चाहिये, इस प्रकार खड़ा रहना चाहिये यावत् इस प्रकार संयम का पालन करना चाहिये ।"
७-तणं से कत्तिए सेट्ठी णेगमट्टसहस्सेण सधि मुणिसुव्वयस अरहओ इमं एयारूवं धम्मियं वदेसं सम्मं पडिवज्जइ, तमाणाए तहा गच्छइ, जाव संजमेह, तरणं से कत्तिए सेट्ठी णेगमट्टस हस्सेणं सधि अणगारे जाए, ईरियासमिए जाव गुत्तबंभयारी । तएणं से कत्तिए अणगारे मुणिसुव्वयस्स अरहओ तहारूवाणं थेराणं अंतियं सामाइयमाइयाई चोद्दस पुव्वाई अहिज्जर, सा० २ अहिज्जित्ता बहहिं
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