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________________ भगवती सूत्र-श. २४ उ. १२ पृथ्वीकायिक जीवों की उत्पत्ति ३०६७ उकोसेण वि अंगुलस्स असंखेजहभागं । मसूरचंदसंठिया । चत्तारि लेस्साओ। णो सम्मदिट्ठो, मिन्छादिट्ठी, णो सम्मामिच्छादिट्ठी । णो णाणी, अण्णाणी, दो अण्णाणा णियमं । णो मणजोगी, णो वइजोगी, कायजोगी। उवओगो दुविहो वि । चत्तारि सण्णाओ। चत्वारि कसाया। एगे फासिदिए पण्णत्ते । तिण्णि समुग्घाया। वेयणा दुविहा । णो इत्थीवेयगा, णो पुरिसवेयगा, नपुंसगवेयगा । ठिईए जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं बावीसं वाससहस्साई । अज्झवसाणा पसत्था वि, अप्पसत्था वि । अणुबंधो जहा ठिई १। भावार्थ-४ प्रश्न-हे भगवन् ! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? .. ४ उत्तर-हे गौतम ! वे प्रति समय निरन्तर असंख्यात उत्पन्न होते हैं। उनमें एक सेवात संहनन होता है । शरीर की अवगाहना जघन्य और उत्कृष्ट अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण होती है। संस्थान मसूरचन्द्र (मसूर की दाल) के समान होता है । लेश्याएँ चार होती है। वे सम्यग्दृष्टि और सम्यगमिथ्यादृष्टि नहीं होते, मिथ्यादृष्टि ही होते हैं। वे ज्ञानी नहीं, अज्ञानी होते हैं। उनमें अवश्य ही मतिअज्ञान और श्रुतअज्ञान होता है । वे मनयोगी और वचनयोगी नहीं होते, काययोगी होते हैं। उनमें साकार और निराकार-दोनों उपयोग होते हैं। चार संज्ञा और चार कषाय होती है और एकमात्र स्पर्शनेन्द्रिय होती हैं । प्रथम की तीन समुद्घात होती हैं। साता और असाता दोनों वेदना होती है। वे स्त्री वेदी और पुरुष वेदी नहीं होते, नपुंसकवेदी ही होते हैं। स्थिति जघन्य अन्तर्मुहुर्त और उत्कृष्ट बाईस हजार वर्ष की होती है । अध्यवसाय प्रशस्त और अप्रशस्त दोनों प्रकार के होते हैं । अनुबन्ध स्थिति के अनुसार होता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004091
Book TitleBhagvati Sutra Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages566
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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