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सिद्धान्तसार दीपक
दृष्टि में रखते हुए उपर्युक्त श्लोकों का अर्थ किया गया है और धागे श्लोक नं० ७४, ७५ का
किया जायगा ।
व्यासोऽस्य ब्रह्मकल्पान्ते रज्जुपञ्चमः क्रमात् । होयमानश्च रज्ज्नेको
यो प्रति ॥७३॥ पिण्डीकृते प्रजायन्ते षड्ज्जवोऽखिलास्ततः । द्विभागी संकृते तासां तिस्रः स्यू रज्जयश्च ताः ॥७४॥ सप्तभिर्गुणिता जायन्ते ह्यकविंश रज्जवः । पुनस्ता वगिताः सार्धत्रिभिः सार्धत्रिसप्ततिः ।। ७५ ।। पिण्डीकृता भवन्त्यूर्ध्वलोकस्य रज्जबोऽखिलाः । घनाकारेण लोकाग्रपर्यन्तं ब्रह्मकल्पतः ॥७६॥
अर्थ::-ब्रह्मकल्प पर लोक का व्यास पांच राजू प्रमारण है, और क्रम से हीन होते होते लोक अग्रभाग का व्यास एक राजू प्रमित रह जाता है। इन दोनों को जोड़ देने से (५ + १) = ६ राजू हो हैं। इन्हें आधा करने पर (६ : २ ) - ३ राजू प्राप्त होते हैं । इन तीन को ३३ ऊँचाई से गुरित कर पर अर्ध ऊर्ध्वलोकका क्षेत्रफल (३ x ३ ) = अर्थात् १०३ वर्ग राजू प्राप्त होता है। इसको सात रा मोटाई से गुणित कर देने पर (३' x ३ = ३७ अर्थात् ७३३ घनराजू प्रमाण घनफल अर्ध ऊबेल का अर्थात् ब्रह्मलोक से लोकाग्र पर्यन्त का जानना चाहिये । लोकके दोनों अ ऊ भागों का घन मिला देने से सम्पूर्ण ऊर्ध्वलोकका घनफल (७३३+७३३ ) = १४७ घन राजू प्रमाण होता है ॥७३-७६ अब सम्पूर्ण लोक का घनफल कहते हैं ।
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इति लोकत्रयस्यास्य सघनाकारेण रज्जयः । शतश्रयत्रिचत्वारिंशदप्रमिता मताः ॥७७॥
अर्थ : - इस प्रकार तीनों लोकों का सम्पूर्ण घनफल ( अधोलोक का १६६ घनराजू श्री ऊर्ध्वलोक का १४७ घनराजू, १६६ + १४७ ) == ३४३ घनराजू प्रमारण जानना चाहिये । अर्था सम्पूर्ण लोकाकाश के यदि एक राजू लम्बे, एक राजू चौड़े और एक राजू मोटे टुकड़े किये जायें सम्पूर्ण टुकड़ों की संख्या ३४३ प्राप्त होगी ॥७७॥
अब दो श्लोकों द्वारा लोक की परिधि का निरूपण किया जाता है :
लोकस्य परिधिर्ज्ञेया पूर्व पश्चिमभागयोः ।
रज्जून साधिककोनचत्वारिंशत्प्रभाखिलाः ॥७८॥