________________ सिद्ध-सारस्वत सरलता और विनम्रता के अमूल्य आभूषण आदरणीय विद्वान् प्रो. सुदर्शनलालजी जैन प्राकृत, संस्कृत एवं जैन विद्या के स्थापित विद्वान् हैं। आपने अत्यन्त विषम परिस्थितियों में बचपन बिताकर भी अपने पुरुषार्थ के बल पर विश्वविद्यालय के अनेक उच्च पदों तक अपनी पहुँच बनाई। आप काशी हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी में लगभग 39 वर्षों तक व्याख्याता से लेकर विभागाध्यक्ष एवं सङ्कायप्रमुख आदि उच्च पदों पर सेवारत रहे। आपने अनेक ग्रन्थों का लेखन-सम्पादन भी किया। आपके मार्गदर्शन में अनेक छात्रों ने पी-एच. डी. भी की। आपने भारत में ही नहीं, विदेशों में जाकर भी जैन विद्या का प्रचार-प्रसार किया। कुल मिलाकर आपका पुरुषार्थ सभी के लिए शिक्षाप्रद है, अभिनन्दनीय है। न केवल ज्ञान, आपका स्वभाव भी बहुत अच्छा है। सरलता और विनम्रता उनके अमूल्य आभूषण हैं। यही कारण है कि आपने अनेक सामाजिक संस्थाओं के माध्यम से भी जैन संस्कृति की रक्षा-सुरक्षा में अपना विशेष योगदान किया है। आपकी प्रेरणा और मार्गदर्शन के फलस्वरूप मैं पी-एच.डी. कर सका। आपके अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशन के शुभ अवसर पर मैं आपके स्वस्थ एवं दीर्घायु रहने की मङ्गल कामना करता हूँ। आपके निमित्त से जैन विद्या की महती प्रभावना हो। जैनं जयतु शासनम्। प्रो0 वीरसागर जैन श्री लालबहादुर शास्त्री राष्ट्रिय संस्कृत विद्यापीठ, नई दिल्ली धीर-गम्भीर और शान्त स्वभावी प्रो. सुदर्शन लाल जी आदरणीय डॉ सुदर्शन लाल जी का अभिनन्दन ग्रन्थ तैयार हो रहा है यह अत्यन्त प्रसन्नता का विषय है। जैन समाज के पुरानी पीढ़ी के विद्वान, जैसे कि पण्डित फूलचंद्र जी, पण्डित कैलाश चंद्र जी, पण्डित जगन्मोहन लाल जी, इत्यादि मूर्धन्य विद्वान् डॉक्टरेट की उपाधि से रहित विद्वान थे। इन्होंने कभी सरकारी सेवा नहीं की। परन्तु अगली पीढ़ी में इनके शिष्यों की एक लम्बी कतार का प्रादुर्भाव हुआ। इन्हीं में से अनेक ने डॉक्टरेट करना प्रारम्भ किया और इस श्रेणी में जो विद्वान् आगे आये, उनमें डॉ. सुदर्शन लाल जी का नाम पहली पंक्ति में आता है। इसका नतीजा यह रहा कि काशी हिन्दू विश्वविद्यालय जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों में इन विद्वानों ने अपना स्थान बनाया। इसे सुविधाभोगी विद्वानों की परम्परा की शुरूआत कहा जा सकता है। पता नहीं क्यों भारतवर्ष की प्राचीन परम्परा में सरस्वती तथा लक्ष्मी को सर्वदा विरोधी बताया जाता रहा है। मुझे ऐसा लगता है की यह प्राचीन भारत में विद्वानों को धनपतियों के आधीन रखने की एक साज़िश रही है। क्या एक विद्वान् गरिमा पूर्वक नहीं रह सकता। उसे हमेशा दयनीय क्यों दिखाया जाता है। अच्छे सरकारी संस्थानों में पद पाने वाले विद्वानों से यह साज़िश कुछ हद तक समाप्त हुई। डॉ सुदर्शन लाल जी ने भी काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में कई दशकों तक अपनी गरिमा को कायम रखते हुए अपनी सेवाएं दीं। वे संस्कृत एवं प्राकृत के एक अच्छे विद्वान् हैं। इन भाषाओं के लिए 2012 में उनको राष्ट्रपति द्वारा सम्मान प्रमाण पत्र भी दिया गया। अपने साहित्यिक जीवन में उन्होंने अनेक ग्रन्थों का लेखन एवं सम्पादन भी किया। जैन समाज की लगभग सभी सामाजिक संस्थाओं से वे जुड़े रहे। अपने पारिवारिक जीवन में भी वे अत्यन्त सफल रहे हैं। मैंने उनको हमेशा एक धीर गंभीर तथा शांत मुद्रा में ही देखा है। यह उनका स्वाभाविक गुण है। इसी के चलते वे अपने जीवन में हमेशा उन्नति के पथ पर अग्रसर रहे हैं। आज भी लगभग 75 वर्ष की आयु में वे पूर्ण रूप से सक्रिय तथा सजग दिखाई देते हैं। यह भी उनकी शांत वृत्ति का ही परिणाम है। मैं उनको जीवन के इस सोपान पर अपनी हार्दिक शुभकामनायें तथा बधाई देता हूँ। यह भी मङ्गल कामना करता हूँ की वे एक लम्बे समय तक समाज का मार्गदर्शन करते रहें। प्रो. अशोक कुमार जैन पूर्व विभागाध्यक्ष एवं वरिष्ठ प्रोफेसर, आई.आई.टी., रुड़की सम्मानित प्रोफेसर, एमिटी यूनिवर्सिटी, नोएडा, प्रतिष्ठित प्रोफेसर, अकाल यूनिवर्सिटी, पंजाब 48