________________ इसकी आराधना-अवधि एक दिन से लेकर 8 मास है। 9. भृत्यप्रेष्य आरम्भवर्जन प्रतिमा - (भृत्य प्रेष्य-परित्याग या परिग्रह-त्याग )इसका साधक दूसरों से भी आरम्भ क्रियाएँ नहीं कराता। आरम्भ होने की अनुमति का त्याग न होने से उसके उद्देश्य से बनाये गए आहार को ले सकता है। यहाँ वह मोह छोड़कर परिग्रहत्यागी हो जाता है। सलाह मांगने पर उचित सलाह दे सकता है। श्वेताम्बरों में इसका आराधनाकाल एक दिन से लेकर 9 मास तक है। 10. उद्दिष्ट-भक्तवर्जन प्रतिमा- इसमें अपने लिए तैयार भोजन आदि का साधक (उपासक) त्याग कर देता है। लौकिक कार्यों से पूर्ण विरत हो जाता है, सलाह भी नहीं देता है। उस्तरे से बाल मुण्डित करा सकता है। चोटी रख सकता है। इसकी अवधि एक दिन से लेकर 10 मास तक है। दिगम्बर परम्परा में इस प्रतिमा का नाम अनुमतित्याग है और इस प्रतिमा का धारी लौकिक कार्यों की सलाह देना भी बन्द कर देता है। प्रायः मन्दिर या उपाश्रय में रहता है। निमन्त्रण स्वीकार कर सकता है। 11. श्रमणभूत प्रतिमा- साधक अपने को श्रमण जैसा बना लेता है। श्रमण जैसी वेशभूषा, पात्र तथा उपकरण रखता है। सहिणुता होने पर केशलुञ्चन करता है। भिक्षाचर्या से जीवन-यापन करता है। श्रमण किसी के भी घर भिक्षाचर्या हेतु जाता है जबकि श्रमणभूत प्रतिमा वाला प्रायः अपने सम्बन्धियों के घरों में जाता है। श्वेताम्बरों में इसका काल एक दिन से लेकर ग्यारह मास है। दिगम्बर परम्परा में इसका नाम उद्दिष्टत्याग प्रतिमा है। अपने उद्देश्य से बनाये गए आहार आदि को नहीं लेता। निमन्त्रण स्वीकार नहीं करता। बालों को कैंची या छुरे से बनाता है। इसके दो भेद हैं- 1. क्षुल्लक- यह एक लंगोटी और एक सफेद चादर रखता है। कई घरों से या एक घर से पात्र में भिक्षा लेता है। जूठे बर्तन स्वयं धोता है। मुनियों के साथ रहकर उनकी वैयावृत्ति करता है। 2. ऐलक- केशलोंच करता है। केवल एक लंगोटी होती है। मयूरपंख की पीछी रखता है। मुनिवत् आहार हाथ में लेकर करता है। (ख) श्रमण (भिक्षु) की बारह प्रतिमाएँ श्रावक की प्रतिमाओं की तरह श्रमण (भिक्षु) की भी विशिष्ट-साधना-भूमिका रूप बारह प्रतिमाएँ हैं। इन प्रतिमाओं अथवा प्रतिमायोग की साधना में श्रमण मन-वचन-काय तीनों योगों को नियंत्रित करता है। प्रथम सात प्रतिमाएँ विशेषरूप से आहार-नियमन से सम्बन्धित हैं और बाद की पाँच प्रतिमाएँ आसन-विशेषरूप-कायोत्सर्ग से सम्बन्धित हैं। इनका विशेष विवरण निम्न प्रकार हैं - श्वेताम्बर मान्यता 1. मासिकी- इस प्रतिमा को धारण करने वाला श्रमण एक मास तक प्रतिदिन एक दत्ति अन्न की और एक दत्ति जल की ग्रहण करता है। एक दत्ति का अर्थ है एक अखण्ड धारा के रूप में जो आहार या जल साधु के पात्र में दाता श्रावक देता है, उतना ही लेकर संतोष करना। विशिष्ट नियम (अभिग्रह) लेकर (जैसे दाता का एक पैर देहली के बाहर हो) दिन में एक बार ही भिक्षार्थ जाता है। यदि विधि के अनुकूल आहार नहीं मिलता तो उपवास करता है। गर्भवती तथा स्तनपान कराने वाली स्त्रियों के लिए निर्मित आहार नहीं लेता। समागत सभी कष्टों को समताभाव से सहन करता है। उपसर्ग करने वाले पर द्वेष न करके उसे अपना उपकारी समझकर कर्म-निर्जरा करता है। एक गाँव में दो रात्रि से अधिक नहीं ठहरता और सूर्यास्त होने पर जैसा भी स्थान होता है रुक जाता है। 2. द्विमासिकी- दो मास तक दिन में दो दत्ति अन्न की और दो दत्ति जल की लेता है। शेष प्रथम प्रतिमावत् है। यद्यपि यहाँ दो दत्तियाँ आहार की मिल रही हैं फिर भी प्रथम से द्वितीय प्रतिमा कठिन है क्योंकि इसकी समय-सीमा अधिक है तथा आहारविधि के नियम कठोर होते हैं। 3. त्रिमासिकी- इसमें तीन मास तक तीन दत्तियाँ ली जाती हैं। 4. चतुर्मासिकी- इसमें चार दत्तियाँ चार मास तक ली जाती हैं। 5. पञ्चमासिकी- इसमें पाँच दत्तियाँ पाँच मास तक ली जाती हैं। 6. षड्मासिकी- इसमें छ: दत्तियाँ छ: मास तक ली जाती हैं। 7. सप्तमासिकी- इसमें सात दत्तियाँ सात मास तक ली जाती हैं। 8. प्रथम सप्त अहोरात्रिकी- इसमें श्रमण एक दिन का निर्जल उपवास (चतुर्भक्त) करके नगर के बाहर जाकर उत्तानासन, पार्वासन या निषद्यासन द्वारा सात दिन-रात का कायोत्सर्ग करता है। मल-मूत्र की बाधा होने पर उसे 274