________________ भाषात्मक और अभाषात्मक। भाषात्मक के दो भेद हैं-अक्षरात्मक और अनक्षरात्मक। मनुष्यों की संस्कृत, प्राकृत, अङ्ग्रेजी आदि भाषाये अक्षरात्मक हैं। द्वीन्द्रियादि जीवों की भाषा तथा केवली की दिव्यध्वनि अनक्षरात्मक है। वीणा, ढोल, झांझ, बांसुरी आदि से उत्पन्न शब्द अभाषात्मक हैं। सभी वैस्रसिक शब्द अभाषात्मक हैं / शब्द, पद और वाक्य अर्थबोधक विभक्तिरहित वणों के समुदाय को 'शब्द' कहते हैं और विभक्तिसहित होने पर उसे ही 'पद' कहते हैं। जैसे 'राम' (र-आ-म् -अ) एक शब्द है और 'रामः' (राम -सु विभक्ति =:) या 'राम ने एक पद है। 'पद' वाक्यांश होता है और वह वाक्यसापेक्ष होता है परन्तु 'शब्द' वाक्य-निरपेक्ष होता है। अपने वाच्यार्थ को प्रकट करने के लिए परस्पर साकाङ्क्ष (सापेक्ष) पदों का निरपेक्ष समुदाय वाक्य है, 'पदानां तु तदपेक्षाणां निरपेक्ष: समुदायो वाक्यमिति (प्रमेयकमलमार्तण्ड पृ0 458) अर्थात् साकाङ्क्ष पद परस्पर मिलकर तब एक ऐसी इकाई बना लेते हैं जिसे अपना अर्थबोध कराने के लिए अन्य की अपेक्षा नहीं रहती है, वाक्य कहते हैं। वाक्य के स्वरूप के सम्बन्ध में विभिन्न मत भारतीय दार्शनिकों में वाक्य के स्वरूप के सम्बन्ध में दो प्रमुख मत हैं (1) वाक्य से पृथक् पद का कोई महत्त्व नहीं है। वाक्य एक अखण्ड इकाई है। इस मत वाले अन्विताभिधानवादी (प्रभाकर मीमांसक का मत) कहलाते हैं। इस अन्विताभिधान मत में पद परस्पर अन्वित ही प्रतीत होते हैं, अर्थात् पदों को सुनकर सङ्केत ग्रहण केवल अनन्वित पदार्थों में नहीं होता, अपितु वाक्य में पद परस्पर अन्वित (सम्बन्धित) होकर ही वाक्यार्थ का बोध कराते हैं। (2) पद वाक्य के महत्त्वपूर्ण अङ्ग हैं और वे अपने आप में स्वतन्त्र इकाई हैं। इस मत वाले अभिहितान्वयवादी (कुमारिलभट्ट का मत) कहलाते हैं। इस मत (अभिहितान्वयवाद) से प्रथमतः पदों को सुनकर अनन्वित (असम्बद्ध) पदार्थ उपस्थित होते हैं पश्चात् आकाङ्क्षा, योग्यता, सन्निधि और तात्पर्य के आधार पर (विभक्तिप्रयोग के आधार पर) उन पदों के परस्पर सम्बन्ध का बोध होकर वाक्य का बोध होता है, अर्थात् वाक्यार्थ पदों के वाच्यार्थों के पारस्परिक सम्बन्ध (अन्वय) पर निर्भर है। जैन दृष्टि से पद और वाक्य दोनों का सापेक्षिक महत्त्व है, क्योंकि पदों के अभाव में न तो वाक्य सम्भव है और न वाक्य के अभाव में पद अपने विशिष्ट अर्थ के प्रकाशन में सक्षम है। इस तरह जैनदर्शन में पद और वाक्य दोनों पर समान बल दिया गया है। वस्तुत: पद और वाक्य न तो परस्पर भिन्न हैं और न अभिन्न। अत: वाक्यार्थ बोध में कोई भी उपेक्षणीय नहीं है। इस तरह जैनदर्शन में दोनों मतों का समन्वय किया गया है। किञ्च इसमें न केवल क्रियापद (आख्यात) प्रधान है और न कर्तृपद। वाच्यार्थ-निर्धारण की नय-निक्षेप-पद्धति वक्ता द्वारा कहे गए शब्दों का सही अर्थ निर्धारण नय और निक्षेप पद्धतियों से सम्भव है। एक ही शब्द या वाक्य प्रयोजन तथा प्रसङ्गानुसार अनेक अर्थों में प्रयुक्त होता है। जैसे - 'सैन्धव' शब्द भोजन के समय 'नमक' का बोधक है और यात्रा के समय 'घोड़ा' का बोधक है। अतः श्रोता को वक्ता के शब्दों के साथ उसका अभिप्राय, कथनशैली, तात्कालिक सन्दर्भ आदि को जानना जरूरी है। इसके लिए आवश्यक है, नय और निक्षेप सिद्धान्तों का जानना। निक्षेप पद्धति वक्ता ने किस शब्द का प्रयोग किस अर्थ में किया है इसका निर्धारण निक्षेप से किया जाता है। प्रत्येक शब्द के कम से कम चार प्रकार के अर्थ सम्भव हैं। अत: उन चार अर्थों के आधार पर ही निक्षेप के चार भेद किए जाते हैं 1. नाम निक्षेप, 2. स्थापना निक्षेप, 3. द्रव्य निक्षेप और 4. भाव निक्षेप / जैसे - 'राजा' शब्द (1) राजा नामधारी व्यक्ति, (2) राजा का अभिनय करने वाला अभिनेता, (3) भूतपूर्व शासक और (4) वर्तमान शासक, इन चार अर्थों को क्रमश: नामादि चार निक्षेपों के द्वारा प्रकट करता है। (1) नाम निक्षेप--शब्द के व्युत्पत्तिपरक अर्थ की तथा गुणादि की अपेक्षा न करते हुए किसी व्यक्ति या वस्तु को संकेतित करने के लिए कोई 'नाम' रख देना नाम निक्षेप है। जैसे-जन्मान्ध को 'नयन सुखदास' कहना। इसी तरह लोक 284