________________ (ख) दिगम्बर ग्रन्थों में प्राप्त उल्लेख दिगम्बर परम्परा में अङ्ग ग्रन्थों की विषयवस्तु का निरूपण प्रमुख रूप से तत्त्वार्थवार्त्तिक, धवला, जयधवला और अङ्गप्रज्ञप्ति में हुआ है / यथा1. तत्त्वार्थवार्तिक में3-आचाराङ्ग में (मुनि) चर्या का विधान है जो 8 शुद्धि, 5 समिति और 3 गुप्ति रूप है। 2. धवला (षटखण्डागम-टीका) में14--आचाराङ्ग में कैसे चलना चाहिए, कैसे खड़े होना चाहिए, कैसे बैठना चाहिए, कैसे शयन करना चाहिए, कैसे भोजन करना चाहिए और कैसे सम्भाषण करना चाहिए ? इत्यादि रूप से मुनियों के आचार का कथन किया गया है। इसमें 18 हजार पद हैं। 3. जयधवला (कषायपाहुड-टीका) में15-आचाराङ्ग में 'यत्नपूर्वक गमनादि करना चाहिए' इत्यादि रूप से साधुओं के आचार का वर्णन है। 4. अङ्गप्रज्ञप्ति में16 -आचाराङ्ग में 18 हजार पद हैं। भव्यों के मोक्षपथगमन में कारणभूत मुनियों के आचार का वर्णन है। इसमें धवला और जयधवलावत् कथन है। मुनियों के केशलोंच, अवस्त्र, अस्नान, अदन्तधावन, एकभक्त, स्थितिभोजन आदि का भी उल्लेख है। (ग) वर्तमान रूप उपलब्ध आचाराङ्ग में विशेषरूप से साधुओं के आचार का प्रतिपादन किया गया है। इसके दो श्रुतस्कन्ध हैं। प्रथम श्रुतस्कन्ध- इसका नाम ब्रह्मचर्य है जिसका अर्थ है 'संयम'। यह द्वितीय श्रुतस्कन्ध से प्राचीन है। इसमें 9 अध्ययन हैं-1-शस्त्रपरिज्ञा, 2-लोकविजय, 3-शीतोष्णीय, 4-सम्यक्त्व, 5-आवन्ति (यावन्तः) या लोकसार, 6-धूत, 7-महापरिज्ञा, 8-विमोह या विमोक्ष और 9-उपधानश्रुत। कुल मिलाकर इस श्रुतस्कन्ध में 44 उद्देशक हैं। पहले 51 उद्देशक थे" जिनमें से 7वे महापरिज्ञा के सातों उद्देशकों का लोप माना गया है। द्वितीय श्रुतस्कन्ध-इसमें चार चूलायें हैं (“निशीथ" नामक पञ्चम चूला आज आचाराङ्ग से पृथक् ग्रन्थ के रूप में प्रसिद्ध है) जिनका 16 अध्ययनों और 25 उद्देशकों में विभाजन विधिमार्गप्रपा की तरह ही है। (घ) तुलनात्मक विवरण दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों के उल्लेखों से इतना स्पष्ट है कि इसमें साधुओं के आचार का वर्णन था तथा इसकी पद-संख्या 18 हजार थी। उपलब्ध आगम से पद-संख्या का मेल करना कठिन है। वीरसेनाचार्य ने धवला टीका में तो पद-संख्या का उल्लेख किया है, परन्तु जयधवला में उल्लेख नहीं किया है। आचाराङ्ग की विषयवस्तु के सन्दर्भ में दिगम्बर ग्रन्थों में केवल सामान्य कथन है जबकि श्वेताम्बर ग्रन्थों में आचाराङ्ग के अध्ययनों आदि का विशेष वर्णन है। स्थानाङ्ग में केवल प्रथम-श्रतस्कन्ध के 9 अध्ययनों का उल्लेख मिलने से तथा समवायाङ्ग में ब्रह्मचर्य के 9 अध्ययनों का पृथक् उल्लेख होने से प्रथम श्रुतस्कन्ध की प्राचीनता और महत्ता को पुष्टि होती प्रथम श्रुतस्कन्ध के महापरिज्ञा अध्ययन का क्रम स्थानाङ्ग, समवायाङ्ग और विधिमार्गप्रपा में नवमा है, जबकि उपलब्ध आचाराङ्ग में महापरिज्ञा' का क्रम सातवां है। शीलांकाचार्य की व्याख्या में महापरिज्ञा' को आठवां स्थान दिया गया है। इस तरह क्रम में अन्तर आ गया है। 'महापरिज्ञा' का लोप हो गया है, परन्तु उस पर लिखी गई नियुक्ति उपलब्ध है। नियुक्ति में आचाराङ्ग के दस पर्यायवाची नाम भी गिनाए हैं-आयार, आचाल, आगाल, आगर, आसास, आयरिस, अङ्ग, आइण्ण, आजाई और आमोक्ख। 'चूला' शब्द का उल्लेख हमें समवायाङ्ग में मिलता अवश्य है परन्तु वहां उसका स्पष्ट विभाजन नहीं है जैसा कि विधिमार्गप्रपा में मिलता है। समवायाङ्ग के 57वें समवाय में आचाराङ्ग, सूत्रकृताङ्ग और स्थानाङ्ग के जो 57 अध्ययन कहे गए हैं उनमें सूत्रकृताङ्ग के 23 और स्थानाङ्ग के 10 अध्ययन हैं। इस तरह 33 अध्ययन निकाल देने पर आचाराङ्ग के 24 अध्ययन शेष रहते हैं। इन 24 अध्ययनों की सङ्गति किस प्रकार बैठाई जाए, यह विवादास्पद ही है। सम्भवत: विलुप्त 'महापरिज्ञा' को कम कर देने पर प्रथम के 8 अध्ययन और दूसरे के चला (निशीथ) छोड़कर 16 अध्ययन माने जाने पर 24 अध्ययनों की सङ्गति बैठाई जा सकती है जो एक विकल्प मात्र है। इस पर अन्य दृष्टियों से भी सोचा जा सकता है क्योंकि वहां 'महापरिज्ञा' के लोप का उल्लेख नहीं है। जहां तक आचाराङ्ग की विषयवस्तु के निरूपण का प्रश्न है, मेरी दृष्टि में श्वे० परम्परा के आचार्यों के सामने उपलब्ध आचाराङ्ग ही रहा है किन्तु दिगम्बर आचार्यों ने मूलाचार को ही आचाराङ्ग का रूप मानकर उसकी विषयवस्तु 308