Book Title: Siddha Saraswat
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Abhinandan Granth Prakashan Samiti

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Page 416
________________ 6. मार्कण्डेय, प्राकृतसर्वस्व 1.1 7. धनिक दशरूपकवृत्ति 2.60 8. कर्पूरमंजरी, 1.8,9 वासुदेव टीका 9. लक्ष्मीधर षड्भाषाचन्द्रिका, श्लोक 25 10. वाग्भटालङ्कार 2.2 टीका सिंहदेव गणि 11. देखें, मेरी पुस्तक प्राकृत दीपिका, भूमिका, पृ. 12-13 12. मूल सन्दर्भ के लिए देखें, प्राकृत मार्गोपदेशिका, पृ0 111-125 13. वही, पृ0 126-135 महाराष्ट्री प्राकृत में संस्कृतस्थ मूल 'य' वर्ण का अभाव प्राकृत वैयाकरणों ने संस्कृत के शब्दों को मूल मानकर प्राकृत भाषा का अनुशासन किया है। महाराष्ट्रीप्राकृत में संस्कृत के मूलवर्ण 'य' का अभाव है क्योंकि संस्कृत शब्दों में जहाँ भी 'य' वर्ण आता है उसका सामान्यरूप से-आदि वर्ण होने पर 'ज' हो जाता है, संयुक्तावस्था में तथा दो स्वरों के मध्य में होने पर लोप हो जाता है। साहित्यिक महाराष्ट्रीप्राकृत में जहाँ कहीं भी 'य' वर्ण दिखलाई देता है वह मूल संस्कृत का 'य' नहीं है अपितु लुप्त व्यञ्जन के स्थान पर होने वाली लघुप्रयत्नोच्चारित 'य' ध्वनि (श्रुति - श्रुतिसुखकर) है। इसकी पुष्टि प्राकृत-व्याकरण के नियमों से तथा प्राचीन लेखों से होती है। महाराष्ट्रीप्राकृत में वर्ण-लोप सर्वाधिक हुआ है जिससे कहीं-कहीं स्वर ही स्वर रह गए हैं। मूल संस्कृत के 'य' वर्ण में होने वाले परिवर्तन निम्न हैं1. पदादि 'य' को 'ज' होता है। जैसे—यशः > जसो, युग्मम् > जुग्गं, यमः > जमो; याति > जाइ, यथा > जहा, यौवनम् > जोव्वणं / ‘पदादि में न होने पर 'ज' नहीं होता' इसके उदाहरण के रूप में आचार्य हेमचन्द्र अपनी वृत्ति में अवयवः > अवयवो और विनयः > विणओ इन दो उदाहरणों को प्रस्तुत करते हैं। यहाँ 'विनय' के 'य' का लोप स्पष्ट है जो आगे के नियम से ( दो स्वरों के मध्य होने से ) हुआ है। अवयव में जो 'य' दिखलाई पड़ रहा है वह वस्तुत: 'य' श्रुति वाला 'य' है जो 'य' लोप होने पर हुआ है। अत: इसका रूप 'अवअओ' भी होता है / यहाँ दो स्वरों के मध्यवर्ती 'य' लोप में तथा 'य' श्रुति में कोई प्रतिबन्धक कारण नहीं है। यहीं आचार्य हेमचन्द्र बहुलाधिकार से सोपसर्ग अनादि पद में भी 'य' के 'ज' का विधान भी करते हैं। जैसेसंयमः > संजमो, संयोग: > संजोगो, अपयशः > अवजसो वररुचि ने भी इस सन्दर्भ में अयश: > अजसो यह उदाहरण दिया है। हेमचन्द्र आगे इसका प्रतिषेध करते हुए (सोपसर्ग 'य' का 'ज' नहीं होता) प्रयोगः ) पओओ उदाहरण प्रस्तुत करते हैं जिसमें 'य' का लोप हुआ है। यहीं पर पदादि 'य' लोप का भी उदाहरण आर्षप्रयोग के रूप में दिया है यथाख्यातम् > अहक्खाय; यथाजातम् > अहाजायं। यष्टि' शब्दस्थित पदादि 'य' को 'ल' विधान किया गया है। जैसेयष्टिः > लट्ठी। खड्गयष्टि और मधुयष्टि में भी य को ल हुआ है। जैसे- खग्गलट्ठी, महुलट्ठी / अन्यत्र भी 'य' का 'ज' होता है, इसके उदाहरण आगे विशेष परिवर्तन में दिखलायेंगे। 2. स्वर-मध्यवर्ती 'य' का लोप होता है। जैसे-दयालुः ) दयालू; नयनम् ) नयणं (णयणं); वियोगः > विओओ। ये तीन उदाहरण हेमचन्द्र ने 'य' लोप के दिए हैं। यहाँ 'दयालू' और 'नयणं' इन दो उदाहरणों में स्थित 'य' को देखकर लगता है मानो 'य' लोप नहीं हुआ है, मूल संस्कृत का 'य' ही है, जबकि स्थिति यह है कि यहाँ दृश्यमान 'य' लघुप्रयत्नोच्चारित 'य' श्रुति वाला है जो 'य' लोप के बाद 'अ' उवृत्त स्वर के रहने पर हुआ है। इसीलिए इन दोनों उदाहरणों को हेमचन्द्र 'य' श्रुति में भी देते हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि स्वर मध्यवर्ती 'क, ग' आदि वर्गों का लोप तो प्रायः होता है। परन्तु 'य' का नित्य लोप होता है यदि कोई अन्य परिवर्तन न हो। 'य' की स्थिति अन्य वर्गों से भिन्न है। संस्कृत से प्राकृत में परिवर्तित होते समय संयुक्त व्यञ्जन वर्गों के बलाबल के सन्दर्भ में भाषा वैज्ञानिकों ने 'य' को कमजोर वर्ण माना है। सिर्फ 'र' ही ऐसा वर्ण है जो 'य' से कमजोर बतलाया है (ल स व य र क्रमश: निर्बलतर)। परन्तु जब 'य' और 'र' का संयोग होता है 396

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