Book Title: Siddha Saraswat
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Abhinandan Granth Prakashan Samiti

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Page 456
________________ कल्याणक सम्पन्न हआ। साहित्यिक समीक्षा - मुनिसुव्रत महाकाव्य साहित्यिक समीक्षा की दृष्टि से अत्युतम रचना है। मुनिसुव्रत स्वामी के जीवनवृत्त का निरूपण करने के क्रम में जैनदर्शन के सिद्धान्तों का भी सुन्दर प्रख्यापन है। मुनिसुव्रत स्वामी के जीवनानुक्रम का चित्रण अलङ्कृत साहित्यिक भाव-भूमि पर किया गया है। वर्णन को भावपूर्ण ढंग से उपस्थापित करने में अनेक सुन्दर अलङ्कार अनायस ही कविलेखनी को समलङ्कृत करते हैं। काव्य का प्रारम्भ कालिदास एवं नलचम्पूकार त्रिविक्रम भट्ट शैली का अनुकरण करता है। कालिदास रघुवंश के प्रारम्भ में कहते हैं - मन्दः कवियशः प्रार्थी गमिष्याम्युपहास्यताम्। प्रांशुलभ्ये फले शोभादुबाहुरिव वामनः / / रघुवंश 1/3 नलचम्पूकार इसी भाव को इस प्रकार कहते हैं सोऽहं हंसायितुं मोहाद् बकः पङ्गुर्यथेच्छसि। मन्दधीस्तद्वदिच्छामि कविवृन्दारकायितुम्।। इसी शैली का अनुकरण करते हुए आचार्य अर्हद्दास कहते हैं मनः परं क्रीडयितुं ममैतत्काव्यं करिष्ये खलु बाल एषः। न लाभपूजादिरतः परेषां न लालनेच्छा: कलभारमन्ते।। अर्थात् अल्पज्ञ मैं अर्हद्दास अपने मनोरञ्जन हेतु ही इस काव्य का प्रणयन करूँगा, न कि दूसरों से अर्थलाभ एवं सम्मान पाने की कामना से। हाथी के बच्चे, अपनी उमंग से ही जलक्रीडा करते हैं, दूसरों को प्रसन्न करने की अभिलाषा से नहीं। पुनश्च मेरा यह काव्य यदि पूर्ववर्ती कवियों के समान नहीं होगा, यह मानकर सज्जनगण हंसते हैं, तो हँसे। जड़ एवं तुच्छ शुक्ति क्या आज भी अमूल्य मोती पैदा नहीं करती ? श्रव्यं करोत्येष किल प्रबन्धं पौरस्त्यवन्नेति हसन्तु सन्तः। किं शुक्तयोऽद्यापि महापराखू मुक्ताफलं नो सुवते विमुग्धाः।। कवि इस तथ्य से भी सुपरिचित है कि इस संसार में महाकवियों के प्रबन्ध को सुनकर कोई कोई महापुरुष ही प्रमुदित होते हैं, जड़ नहीं। जैसे चन्द्रोदय को देखकर समुद्र ही वृद्धि को प्राप्त होता है, जलाशय नहीं प्रबन्धमाकर्ण्य महाकवीनां प्रमोदमायाति महानिहैकः। विधूदयं वीक्ष्य नदीन एव विवृद्धिमायाति जडाशया न।। मुनिसुव्रत काव्य का प्रबल पक्ष है, इसकी काव्यात्मकता। मगध देश एवं राजगृह का यहाँ अत्यन्त सुन्दर वर्णन है। अलङ्कारों की मनोरम छटा अनेकत्र दिखाई देती है। मुनिसुव्रत के जन्म देश मगध के वर्णन प्रसङ्ग में परिसंख्या अलङ्कार का सुन्दर प्रयोग वहाँ के प्राकृतिक एवं मानसिक सौन्दर्य का सहज चित्रण कर देता है - यत्रावित्वं फलिताटवीषु पलाशिताद्रौ कुसुमे परागः। निमित्तमात्रे पिशुनत्वमासीद् निरोष्ठयकाव्येष्वपवादिता च।।4 जिस मगध देश में आर्तवत्व (षड्ऋतुओं का होना, मानसिक दुःख) फले हुए जंगलों में था, मगधवासियों में नहीं पलाशिता (पत्तों वाला होना या मांस भक्षण) पर्वतों में था, मगधवासियों में नहीं, पराग (पुष्परज, बड़ा अपराध) फूलों में था, मनुष्यों में नहीं पिशुनत्व। (शकुन विचार, चुगलखोरी) निमित्तशास्त्रों में थी, मनष्यों में नहीं। अपवादिता (पवर्गोक्तिराहित्य, निन्दाभाव) ओष्ठ्याक्षर रहित काव्यों में था, मनुष्यों में नहीं। जहाँ माल्यता (पुष्पमालाएँ, मलिनता) स्त्रियों के केशपाशों में थी, न कि मगधवासियों में। श्याम-आननत्व स्त्रियों के स्तनों में था, लोगों के हृदय में नहीं। जड़ता (गठीलापन, मन्दता) स्त्रियों की जंघाओं में थी, मगध निवासियों की बुद्धि में नहीं। अपाङ्गता (कटाक्ष-ईक्षण, अङ्गहीनता) स्त्रियों के नेत्रों में थी, न कि मगधवासियों में। नास्तिवाद (अतिकृशता, नास्तिकता) स्त्रियों के कटि भाग में था, मगधनिवासियों में नहीं - स्त्रीणां कचे माल्यमुरोजभारे श्यामाननत्वं जघने जडत्वम्। अपाङ्गता केवलमक्षिसीम्नोर्मध्यप्रदेशेषु च नास्तिवादः।। 436

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