________________ किन्तु इसी देह में स्थित है। उसी की अनुभूति से पूर्व कर्मों का क्षय होता है। वह आत्म-तत्त्व न देवालय में, न शिला में, न लेप्य में और न चित्र में है। वह तो अक्षय निरंजन ज्ञानमय शिव समचित्त में है। रागादि से मलिन चित्त में शुद्धात्म स्वरूप के दर्शन नहीं होते। उसी शुद्धात्म स्वरूप के ध्यान से अनन्त सुख की प्राप्ति होती है। रागरंजित हृदय में शांतदेव उसी प्रकार नहीं दिखते, जिस प्रकार मलिन दर्पण में प्रतिबिम्ब / ज्ञानमय आत्मा को छोड़कर दूसरी वस्तु ज्ञानियों के मन में नहीं सुहाती, नहीं लगती। जिसने मरकत मणि जान लिया, उसे काँच से क्या प्रयोजन ? ध्यानयोग का स्वरूप - आत्मस्वरूप का चिन्तन ही ध्यान योग है। आत्मार्थी अपने आत्मा के परम आत्म-स्वरूप को जानते हुए यह विचार करता है कि मैं एक चेतन स्वरूप ज्ञान-दर्शन गुण से युक्त हूँ। मेरे गुण और मेरे असंख्य आत्मप्रदेश ही मेरी वस्तु है। पुद्गल अचेतन है। यह जानकर आत्म-ध्यानी पुरुष पर पदार्थों से निज एकत्व-बुद्धि हटा लेता है और परभावों को छोड़कर स्व-स्थित कर्मक्षय कर भव-भ्रमण का अंत कर देता है। ध्यान और चिन्तन निज भावना का करना कहा है। जिन और शुद्ध आत्मा एक ही वस्तु है। अतः ध्यान जिन के अवलम्बन से निज आत्मा का करना ही अभीष्ट है। शुद्ध आत्मा के ध्यान से ही मोक्ष-सुख की प्राप्ति होती है। जो निज नासिका पर दृष्टि रखकर ध्यान करते हैं और शरीर रहित अन्तर-आत्मा के दर्शन करते हैं, वे पुरुष फिर नर-जन्म धारण नहीं करते - णासग्गि अब्भिंतरहं, जे जीवहि असरीरु। बाहहि जम्मिणि संभवहि, पिवहिं ण जणणी खीरु / / 60 / / आत्मा शरीर से रहित अमूर्तिक है। वह इन्द्रियों द्वारा नहीं जाना जाता। मन भी केवल विचार कर सकता है। आत्मा का ग्रहण आत्मा के ही द्वारा होता है। बाहरी साधन ध्यान का अभ्यास है। दोहा सं.62 में आचार्य योगेन्दु का कथन है - आत्मा ही ज्ञापक है, आत्मा ही ज्ञान है और आत्मा ही ज्ञेय है। इस ज्ञान से कौनसा फल नहीं मिलता? आत्मा के ज्ञान-ध्यान से केवलज्ञान, अतीन्द्रिय आनन्द और शाश्वत सुख की प्राप्ति होती है। गीता में कहा है - ___ ध्यानाग्नि ज्ञानाग्नि वा सर्वकर्माणि भस्मसात् कुरुते क्षणः। ज्ञान ध्यान की अग्नि से सब प्रकार के कर्म भस्म हो जाते हैं। जो केवलज्ञानी होने से लोक-अलोक दोनों को हस्तामलकवत् जानते हैं और जो परभावों की उत्पत्ति से रहित हैं ऐसे सुपण्डित जो भगवान् हैं, वे धन्य हैं। हम उन्हें शाश्वत नमन करते हैं। 64 / / जिन्होंने आत्मा को जाना है उसका अनुभव किया है, वे यदि आत्मस्थित होकर रहते हैं तो शीघ्र ही निर्वाण को प्राप्त करते हैं। जो गृहस्थ हो या मुनि, कोई भी हो, जो अपनी आत्मा के भीतर वास करता है, वह शीघ्र ही सिद्धि के सुख को प्राप्त करता है। ऐसा जिनेन्द्र देव ने कहा है - सागारु विणागारु कु वि जो अप्पणि वसेइ। सोलहु धावइ सिद्धि, सुहु जिणवरुएम भणेइ।। 65 / / आत्म ध्यान पर बल देते हुए आ. योगीन्दु देव का उपदेश है - हे जीव। यदि तू अकेला ही जायेगा, तो परभाव (राग, द्वेष, मोहादि) को त्याग दे। ज्ञानमय आत्मा का ध्यान कर और मोक्ष सुख को प्राप्त हो। एक्कलउ जइजाइ सिहितो परभाव चरहि।। अप्पा झायहि णाणमहि तहु सिव-सुक्ख लहेहि।। 70 / / आत्मा-ध्यान में यह मनन करे कि जो जिनेन्द्र परमात्मा हैं वह मैं हूँ। मोक्ष का उपाय यही है(75) 'प्रवचनसार' में आचार्य कुन्दकुन्द ने इसी तथ्य को उद्घाटित किया है - जो जाणदि अरहंतं, दव्वत गुणत्त पज्जयंत्तेहि। सो जाणदि अप्पाणं, मोहो खलु जादि लयं / / 80 / / जो अरहंत भगवानको द्रव्य, गुण, पर्याय स्वभाव के द्वारा यथार्थ रूप से जानता है वही अपनी आत्मा को पहिचानता है और उसके दर्शन मोह मिथ्यात्वभाव दूर हो जाता है। जो राग-द्वेष-मोह से रहित होकर, सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र सहित आत्मा में निवास करता है वह अविनाशी सुख का भाजन है। दोहा 78 / यह आत्मा मल रहित शुद्ध व महान परमात्मा है। ऐसा श्रद्धान सम्यग्दर्शन है। ऐसा जानना सो ज्ञान है और बार-बार आत्मा का चिन्तवन पवित्र चारित्र 463