________________ है। 84 / मैं पर-द्रव्य और पर-भावों से पृथक् एक शुद्ध आत्मा हूँ। इस प्रकार चिन्तन करता हुआ, जो निजात्मा में स्थित होकर रमण करता है, वह जन्म-मरण से मुक्त हो सिद्धालय में निवास करता है। जो ज्ञानी समता सुख में लीन होकर बार-बार आत्मध्यान में संलग्न रहता है, वह पूर्व बद्ध कर्मों का क्षय करके मुक्ति को प्राप्त होता है। 93 / / हे जीव। इस अपने आत्मा को पुरुषाकार प्रमाण, पवित्र, गुणों की खान व निर्मल तेज से प्रकाशमान देखना चाहिए। 94 / राग-द्वेष के सम्पूर्ण विकल्पों को छोड़कर जो आत्म-ध्यान-चिन्तन में लीन रहते हैं, उन्हें परम समाधि में लीन कहा गया है। जैसे मैले वस्त्र को ध्यानपूर्वक रगड़ने से मैल साफ हो जाता है, वैसे ही यह अशुद्ध आत्मा ध्यान-योग से शुद्ध हो जाता है। योगसार का मूल प्रतिपाद्य आत्म-दर्शन है। एतदर्थ ग्रन्थकार ने पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ एवं रूपातीत ध्यानों का भी उल्लेख किया है। दोहा 98 / / मंत्र वाक्यों का चिन्तन करना पदस्थ ध्यान है। अपने आत्मा का चिन्तन पिण्डस्थ ध्यान है। शुद्ध चिद्रूप में स्थित अरहंत परमेष्ठी का स्मरण रूपस्थ ध्यान है और रूप से रहित संसारातीत सिद्धपरमेष्ठी का ध्यान रूपातीत ध्यान है। इनमें पिण्डस्थ ध्येय है, शेष ध्यानमार्ग है। स्वानुभव होना या आत्मस्थ रहना ही सामायिक है। हिंसादि पाँच पापों और क्रोधादि चार कषायों को त्याग कर, जो निज आत्मा को जानकर अन्तर्मुखी होकर ध्यान करते हैं, वे छेदोपस्थापना चारित्र पालते हैं। निश्चयनय से जिसने आत्मा का अनुभव कर लिया, उसने पाँचों परमेष्ठियों का अनुभव कर लिया - ये पाँचों पद आत्मा की विकसित अवस्था को ही दिये गये हैं। आत्मदर्शन तथा आत्मज्ञान से बड़ा न कोई तत्त्व है और न द्रव्य। आत्मा स्वयं अपना ईश्वर है, नियामक है। अत: वही एकमात्र शरण है। पञ्चपरमेष्ठी इस आत्मा के ही विकसित शुद्धावस्था के स्वरूप हैं। जो परमस्वरूप आत्मा में अवस्थित है, वही परम इष्ट है। और यही पुरुष-आत्मा का प्राप्तव्य है। योग-विज्ञान में दर्शन-ज्ञानचारित्र की अखण्डता है। चारित्र ही सारे योगाभ्यास की चरम परिणति है। आत्म योग ही चारित्र को शुद्ध करता है। यही ध्यान का उपादेय है। यही मुक्ति का राजमार्ग है। यही योगीन्दुदेव का मन्तव्य है। डॉ. प्रेमचन्द्र जैन 'रांवका' जयपुर निमित्त-उपादान : चिन्तन के कुछ बिन्दु दर्शन-जगत में कारण-कार्य व्यवस्था हमेशा से एक विमर्षणीय विषय रहा है। ईश्वरवादी तो इस जगत को एक कार्य मानकर कारण की खोज 'ईश्वर' तक कर डालते हैं। जैनदर्शन में कारण-कार्य-मीमांसा पर बहुत गहरा चिन्तन किया है। कार्योत्पत्ति में पाँच कारणों के समवाय की घोषणा करते हुए जैनाचार्य वैज्ञानिकता का परिचय तो देते ही हैं, साथ ही 'पर-अकर्तृत्त्व' के सिद्धान्त की पुष्टि भी करते हैं। ईसा की दूसरी-तीसरी शती के महान आचार्य सिद्धसेन 'सन्मतिसूत्र' में लिखते हैं - कालो सहाव णियई पुव्वकयं पुरिस कारणेगंता। मिच्छत्तं ते चेव उ समासओ होति सम्मत्तं / / (3/53) इसमें काल, स्वभाव, नियति, निमित्त (पूर्वकृत आदि) और पुरुषार्थ- इन पाँचों के समवाय से किसी कार्य की उत्पत्ति होती है- यह स्वीकार किया गया है। इन पाँचों में से किसी एक कारण को ही कारण मान लेना एकांत है, मिथ्यात्व है। पाँचों को बराबर महत्त्व देकर उन्हें कारण मानना अनेकान्त है, सम्यक्त्व है। परमपूज्य आचार्यश्री विद्यानन्दजी मुनिराज प्रायः एक वाक्य अनेकान्त-स्याद्वाद दृष्टि से कहते हैं- 'निमित्त कुछ करता नहीं, निमित्त के बिना कुछ होता नहीं।' यह वाक्य हमें वस्तु-स्वभाव समझाने का प्रयास कर रहा है। मैं मानता हूँ जो यह कहता है कि निमित्त से कुछ नहीं होता- वह जैनदर्शन को नहीं जानता और जो यह कहता है कि निमित्त ही सब कुछ करता है, वह भी जैन दर्शन को नहीं जानता। यहाँ धैर्य से समझने की आवश्यकता है। प्रत्येक द्रव्य का अपना-अपना उपादान होता है। उपादान में शक्ति न हो- क्षमता, योग्यता न हो तो लाखों-करोड़ों निमित्त भी मिल जाये, आ जाये तो भी द्रव्य को अपने अनुरूप परिणमा नहीं सकते। इसीलिए कहा गया कि 'निमित्त कुछ करता नहीं'। दूसरी तरफ उपादान में कितनी ही सामर्थ्य हो यदि निमित्त उपस्थित नहीं है तो वह परिणमन कर ही नहीं सकता। इसीलिए कहा है कि- 'निमित्त के बिना कुछ होता नहीं'। ये 464