Book Title: Siddha Saraswat
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Abhinandan Granth Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 485
________________ दोनों बातें सही हैं। हमें अनेकान्त दृष्टि से विचार करना चाहिए। वर्तमान में समाज में दो तरह के लोग दिखाई दे रहे हैं जो अपनी रुचि और प्रियता के कारण किसी एक को ही सर्वाधिक महत्त्व देते हैं। वे दो तरह के लोग निम्न प्रकार से हैं - 1. निमित्त प्रिय लोग, 2 उपादान प्रिय लोग 1. निमित्त प्रिय लोग ये वो लोग हैं जिन्हें निमित्त के गीत गाने में आनन्द आता है। मजबूरी में ये 'उपादान' की हाँ तो भरते हैं, पर उस पर ज्यादा ध्यान नहीं देते, बाहरी क्रिया-काण्डों से ही कल्याण मानने के कारण रात-दिन उसी में मग्न रहते हैं, आत्मा की शुद्धता और उपादान की तरफ देखने या विचार करने का समय ही नहीं निकाल पाते हैं। 2. उपादान प्रिय लोग ये वो लोग हैं जो बाह्य क्रियाकाण्डों में आलसी होते हैं और उपादान के ही गीत गाकर निमित्त को ज्यादा महत्त्व नहीं देते। कई शास्त्र-प्रमाण देने पर निमित्त का निषेध तो नहीं कर पाते हैं किन्तु उपादान के आगे उसे कुछ खास नहीं समझते हैं। कई बार तो अतिरेक में 'निमित्त' की सत्ता तक को चुनौती दे डालते हैं। हम अपनी निजी प्रियता-अप्रियता के कारण रुचि-अरुचि के कारण ही वस्तु का जो मूल स्वभाव है वह समझ नहीं पाते हैं। उसका कारण यह है कि मनुष्य स्वभाव से कर्मशील होता है और हम क्या करें? की हड़बड़ी वाली जिद उसे पहले हम क्या व कैसे जानें, समझें? से कोसों दूर कर देती है। यदि हम कुछ समय के लिए क्या करें ? वाली कर्तृत्व भावना आदि को दूर कर दें और पहले सिद्धान्त की और उसकी निरूपण शैली को समझने की कोशिश करें तो शायद क्या करें? का समाधान मिल सकता है। स्वयंभूस्तोत्र में आचार्य समन्तभद्र ने 'अनेकान्तोप्यनेकान्तः' कहकर 'अनेकान्त' को भी अनेकान्त स्वरूप बतलाया है। निमित्त और उपादान इन दोनों को स्वीकारना अनेकान्त दृष्टि है और किसी एक को ही मानकर दूसरे का सर्वथा निषेध कर देना, एकान्त दृष्टि है। यह तो सही है, पर अकेले निमित्त में भी एकान्त और अनेकान्त दोनों घटित हो सकते हैं, और अकेले उपादान में भी, धैर्य के साथ थोड़ा गहराई में जायें तो शायद कोई नई बात समझ में आ जाये। निमित्त सम्बन्धी अनेकान्त - जो अनेकान्त की 'अस्ति-नास्ति' वाली स्यादाद-सप्तभङ्गी को जानते हैं वे विचार करें कि निमित्त और उपादान- ये दोनों भिन्न-भिन्न पदार्थ हैं, अतः - (1) दोनों पदार्थ अपने-अपने स्वरूप से अस्ति रूप हैं और दूसरे के स्वरूप से नास्ति रूप हैं। (2) अत: निमित्त स्व-रूप से अस्तिरूप है और पर-रूप से नास्ति रूप है। (3) अत: उपादान में निमित्त का अभाव है, इस अपेक्षा से उपादान में निमित्त कुछ नहीं कर सकता। निमित्त निमित्त का कार्य करता है, उपादान का कार्य नहीं करता, यह निमित्त का अनेकान्त स्वरूप है। इस माध्यम से निमित्त का यथार्थ ज्ञान हो सकता है। निमित्त-सम्बन्धी एकान्त - यदि कोई माने उपादान उपादान का कार्य भी करता है और उपादान निमित्त का कार्य भी करता है तो इसका अर्थ यह हुआ कि निमित्त अपने रूप से अस्ति रूप है और पर रूप से भी अस्तिरूप है। ऐसा मानना एकान्त हैं। निष्कर्ष यह है कि सबसे पहले हम निमित्त और उपादान इन दोनों की ही स्वयं में पृथक्-पृथक् पूर्ण स्वतंत्र सत्ता समझ लें, फिर इन दोनों के आपसी सम्बन्धों का विचार करें। इतना समझ लेने पर ही कुछ समाधान की तरफ आगे बढ़ सकते हैं। निष्कर्ष - मैं मानता हूँ- इन तथ्यों को समझने के लिए आग्रह-रहित अत्यन्त धैर्य की आवश्यकता है। निमित्त उपादान में कुछ करता है या नहीं? ये दोनों ही बातें चिन्तन-सापेक्ष हैं, दार्शनिक दृष्टि तो यही है कि निमित्त की उपस्थिति अनिवार्य है, किन्तु आध्यात्मिक दृष्टि के अपने अलग मापदण्ड हैं। अध्यात्म में सूक्ष्मातिसूक्ष्म चिन्तन करके जीव अपने पौरुष को पूर्ण स्वतन्त्र देखता है। परम शुद्ध स्वरूप होकर निमित्त का मुहताज नहीं है। शुद्ध द्रव्य की सच्चाई यह है कि निमित्त का 465

Loading...

Page Navigation
1 ... 483 484 485 486 487 488 489 490