Book Title: Siddha Saraswat
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Abhinandan Granth Prakashan Samiti

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Page 488
________________ (सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक 7.3 के व्याख्यान / ) इस प्रकार 'अहिंसा', एक सामाजिक सङ्गठन का प्रथम सोपान है, इस विषय पर वैदिक योगशास्त्र तथा जैन तत्त्वार्थचिन्तन एकमत सिद्ध है। दोनों आचार्य अतिप्राचीन हैं। प्रो. रेवाप्रसाद द्विवेदी पूर्व डीन, संस्कृतविद्या धर्मविज्ञान संकाय, इमेरिटस प्रोफेसर, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय काशी चार जैन तीर्थङ्करों की जन्मभूमि काशी सर्वधर्म समभाव की नगरी है। यहाँ वैदिक धर्मों में शैव, वैष्णव, शाक्त के अतिरिक्त जैन, बौद्ध आदि धर्मों के अनुयायियों के साथ भक्ति सम्प्रदाय की सन्त परम्परा में कबीरदास, तुलसीदास, रविदास, कीनाराम आदि अनेक सन्त भी हुए। इन्हीं में ही जैन परम्परा के अनेक तीर्थङ्करों का काशी से सम्बन्ध रहा। 24 में से चार तीर्थङ्करों का काशी तथा काशी के समीपवर्ती क्षेत्र में आविर्भाव के लिए हुआ। जैन धर्म में चौबीस तीर्थङ्करों की उपासना सुप्रसिद्ध है। इसमें प्रथम तीर्थङ्कर हैं भगवान् ऋषभदेव तथा चौबीसवें तीर्थङ्कर हैं महावीर स्वामी। प्रथम तीर्थङ्कर ऋषभदेव का जन्म अयोध्या में हुआ था तथा चौबीसवें तीर्थङ्कर का वैशाली के कुंडग्राम में। ऋषभदेव जी का चिह्न है बैल और महावीर स्वामी का सिंह। हिन्दू देवीदेवताओं के समान प्रत्येक तीर्थङ्कर का अपना स्वतन्त्र चिह्न माना गया है जो पशु, पक्षी, पुष्प, मत्स्य, शंख, स्वस्तिक इत्यादि के रूप में अङ्कित है। तीर्थ के निर्माता को तीर्थङ्कर कहा जाता है- तरति पापादिकं यस्मात् तत् तीर्थम् - जिससे संसार समुद्र या पापादि को पार किया जाय उसको तीर्थ कहा जाता है और इस प्रकार के तीर्थ के उपदेष्टा को तीर्थङ्कर / संसार सागर को स्वयं पार करने वाले तथा दूसरों को पार कराने वाले महापुरुष तीर्थङ्कर कहलाते हैं। जैन धर्म के तीर्थङ्करों की जन्मभूमि को अत्यन्त पवित्र माना गया है। जैन धर्मावलम्बी इन स्थानों पर जाकर पुण्य लाभ करते हैं। काशी क्षेत्र का जैन धर्म के साथ विशिष्ट सम्बन्ध है क्योंकि चौबीस तीर्थङ्करों में से चार तीर्थङ्करों का जन्म काशी तथा काशी के पास के क्षेत्र में हुआ। चौबीस तीर्थङ्करों में सातवें तीर्थङ्कर सुपार्श्वनाथ, आठवें तीर्थङ्कर चन्द्रप्रभ, ग्यारहवें तीर्थङ्कर श्रेयांसनाथ तथा तेइसवें तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ की जन्मस्थली होने का सौभाग्य काशी तीर्थ को प्राप्त है। 1. तीर्थङ्कर सुपार्श्वनाथ- जैन परम्परा में सातवें तीर्थङ्कर सुपार्श्वनाथ का जन्म काशी में गङ्गा तट पर स्थित भद्रवनी (भदैनी) में हुआ था। आप इक्ष्वाकुवंशीय महाराजा सुप्रतिष्ठ के पुत्र थे। इनकी जन्मभूमि में दो दिगम्बर तथा एक श्वेताम्बर परम्परा के भव्य मंदिर बने हुए हैं। भदैनी के समीप स्थित गङ्गातट के घाट को जैन घाट कहा जाता है। यहाँ पर मुख्य रूप से जैन शास्त्रों तथा जैन धर्म से जुड़े ग्रन्थों के अध्ययन तथा अध्यापन हेतु स्यादवाद महाविद्यालय विगत सौ वर्षों से भी अधिक समय से चल रहा है। तीर्थङ्कर सुपार्श्वनाथ के तीन/चार कल्याणक - गर्भ, जन्म, तप और ज्ञान काशी तीर्थ में सम्पन्न हुए। जैन धर्म में ज्ञान के पाँच भेद हैं- मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्याय और केवलज्ञान। इनमें से पूर्वोक्त ज्ञान के तीन भेद - मति, श्रुत और अवधि इनमें जन्म से ही उपस्थित थे। आपका चिह्न है स्वस्तिक। इनकी प्रतिमाओं में पाँच फणों वाले सर्प को भी कहीं-कहीं अङ्कित किया गया है। जबकि तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ की प्रतिमाओं में सात फणों वाले नाग का अङ्कन मिलता है। सुपार्श्वनाथ ने अपनी कुल परम्परा से राज्य प्राप्त किया तथा उसका सुचारु रूप से सञ्चालन किया। अपने समस्त संसारिक दायित्वों को अच्छी प्रकार से निभाते हुए एक सफल गृहस्थ जीवन व्यतीत किया। जीवन की तृतीय अवस्था में सुपार्श्वनाथ जी को वैराग्य की प्राप्ति हो गई। उन्होंने अपने शासकीय दायित्व को अपने पुत्र को सौप दिया और ज्येष्ठ शुक्ल द्वादशी को मुनिदीक्षा ग्रहण की। संयम साधनापूर्वक आत्मकल्याण की प्राप्ति के अनन्तर आपने अनेक प्राणियों के कल्याण की कामना से 'समवशरण' नामक धर्मसभा से देशना (उपदेश) प्रारम्भ की। काशी, कोशल, मथुरा, मगध आदि प्रमुख गणराज्यों में प्रचार किया। तत्त्वोपदेश तथा अनेक मङ्गलकारी कार्यों द्वारा सर्वाधिक लोकप्रिय हुए और आपने अनेक जैन मन्दिरों में प्रतिमाएँ स्थापित करायीं। जैन धर्म के सिद्धान्तों का उपदेश करने के क्रम में अनेक मोक्षाभिलाषी जन आपके अनुयायी बने। हजारों की संख्या में मुनि, आर्यिकाएँ, श्रावक तथा श्राविकाएँ आपके अनुनायी बनते चले गए। इनके 95 गणधर थे। 300ई0 के जैन मुनि समन्तभद्र की स्तुति के अनुसार आप सभी तत्त्वों का प्रामाणिक ज्ञान रखने वाले मुनि हैं। आप हितोपदेश करते हुए माता के समान प्रजाजनों की रक्षा करते रहे। 468

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