________________ आपने गुणवान् व्यक्तियों को नेतृत्व प्रदान किया। ऐसे आपका हमारे द्वारा भक्तिपूर्वक स्तवन किया जाता है - सर्वस्य तत्त्वस्य भवान् प्रमाता, मातेव बालस्य हितानुशास्ता। गुणावलोकस्य जनस्य नेता, मयापि भक्त्या परिणूयतेऽद्य।। जीवन के अन्तिम समय में तीर्थङ्कर सुपार्श्वनाथ बिहार राज्य के हजारीबाग जिले में स्थित सम्मेदशिखर पर पहुँच फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की सप्तमी तिथि को विशाखा नक्षत्र में निर्वाण को प्राप्त हुए। 2. तीर्थङ्कर चन्द्रप्रभ- जैन धर्म के तीर्थङ्करों की परम्परा में आठवें तीर्थङ्कर हुए चन्द्रप्रभ जी, जिनका चिह्न चन्द्रमा है। पौषमास के कृष्णपक्ष की एकादशी के दिन आपका जन्म हुआ। वाराणसी जनपद में गङ्गाटत पर चन्द्रपुर में आपकी जन्मस्थली है जो वर्तमान में चन्द्रावती चन्दौली जिले के अन्तर्गत आती है। इसके अन्य नाम चन्द्रानन या चन्द्रमाधव भी आपके पिता चन्द्रपुर के इक्ष्वाकुवंशीय कश्यपगोत्रीय महाराज महासेन थे। तीर्थङ्कर सुपार्श्वनाथ के समान गृहस्थ जीवन व्यतीत कर आप मुनिदीक्षा की ओर उन्मुख हुए। अपने पिता से सम्पूर्ण राज्य का दायित्व उत्तराधिकार में प्राप्त कर राज्य का सुचारु रूप से संचालन किया। विवाह के अनन्तर आपको पुत्र की प्राप्ति हुई। राज्य के परित्याग के पूर्व अपने समस्त सांसारिक दायित्वों का पूरी जिम्मेदारी के साथ निर्वाह किया। आप अन्तर्मन से वैराग्य सम्पन्न ही रहे। भौतिक संसार, पांचभौतिक शरीर और सांसारिक सुखोपभोग की क्षणभङ्गुरता का आभास होने पर आपको परम वैराग्य की प्राप्ति हुई और परम वैराग्य की इस अवस्था में सम्पूर्ण राज्य का परित्याग कर दिया। मुनिदीक्षा प्राप्त करने के उपरान्त आपने प्रजाजनों से कहा - वह सुख ही क्या जो अपनी आत्मा से उत्पन्न न हो। वह लक्ष्मी ही क्या जो चञ्चल हो। वह यौवन ही क्या जो नष्ट हो जाने वाला हो। चन्द्रप्रभ पहाड़ी पर एकमाह तक प्रतिमायोग धारण करने के बाद फाल्गुन कृष्ण सप्तमी तिथि को ज्येष्ठा नक्षत्र में मोक्ष हुआ। आपके यक्ष और यक्षी का नाम क्रमशः विजय या श्याम और ज्वालामालिनी है। आपकी जन्मभूमि पर दो जैन मन्दिर स्थित हैं जिनमें से एक दिगम्बर और दूसरा श्वेताम्बर जैन परम्परा से सम्बन्धित है।स्वामी समन्तभद्राचार्य ने अपने स्वयम्भू स्तोत्र में आपका वर्णन करते हुए कहा है - चन्द्रप्रभं चन्द्रमरीचिगौरं चन्द्रं द्वितीयं जगतीव कान्तं। वन्देऽभिवन्धं महतां ऋषीन्द्रं जिनं जितस्वान्तकषायबन्धम्।। चन्द्रमा की गौर वर्ण की किरणों के समान गौरवर्ण, पृथ्वी पर विचरण करने वाले द्वितीय चन्द्रमा के समान प्रसन्नमना, मुनियों, सिद्धों तथा महात्माओं के द्वारा बन्दनीय, ऋषियों में श्रेष्ठ, समस्त कर्मबन्धनों के विनाशक, अन्तरङ्ग के कालुष्यों को वश में कर लेने वाले भगवान् चन्द्रप्रभ को हम प्रणाम करते हैं। यः सर्वलोके परमेष्ठितायाः पदं बभूवाद्भुतकर्मतेजाः। अनन्तधामाक्षरविश्वचक्षुः समस्तदुःखक्षयशासनाश्च।। सम्पूर्ण विश्व में तीर्थङ्कर चन्द्रप्रभ ने जीवन के सर्वोच्च आदर्श को स्थापित किया। उन्होंने सत्य की दिव्य ज्योति अर्जित की। वे अद्भुत कर्म और प्रकाश से सम्पन्न रहे। उन्होंने अनन्त शक्ति के स्रोत केवलज्ञान को प्राप्त किया। उनके उपदेशों में प्राणिमात्र के समस्त दुःखों को समाप्त करने का सामर्थ्य रहा। ऐसे चन्द्रप्रभ जिनेन्द्र मेरी मति को भी शुद्ध करें। 3. तीर्थङ्कर श्रेयांसनाथ- आपका जन्म वाराणसी के समीप स्थित सारनाथ (सिंहपुर) में हुआ था जो बौद्ध धर्म का सुप्रसिद्ध तीर्थ है। आपका चिह्न है गैंडा। आपके पिता इक्ष्वाकुवंशीय महाराज विष्णु थे और माता नन्दा। आपका जन्म फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी को हुआ था। मुनिदीक्षा प्राप्त करने के पूर्व आपने गृहस्थ आश्रम के अपने समस्त सांसारिक दायित्वों का पूरा किया। अपने पिता से उत्तराधिकार के रूप में राजकीय वैभव तथा सुशासन को प्राप्त कर आपने 42 वर्षों तक शासन किया। आपके सुशासन में प्रजा सुखी और समृद्ध रही। विवाह के उपरान्त पुत्रप्राप्ति और उस योग्य पुत्र को सुशासन सौंप कर आप प्रव्रज्या पर निकल पड़े। प्रतिक्षण ऋतुओं के रूप में प्रत्यक्ष गोचर काल में होने वाले परिवर्तनों को देख इनके चित्त में विचार आया कि कुछ भी स्थायी या नित्य नहीं है। अनित्य पदार्थों के भोग में निरन्तर आसक्त रहने वाला प्राणी स्वयं के अस्तित्त्व को भी 469