________________ अनित्यता की ओर ले जाता है और विनाश को प्राप्त होता है। वैराग्य की इस अवस्था में श्रेयांसनाथ जी ने माना कि यथार्थतः समस्त संसार विनाशशील है अतः इससे आसक्ति को दूर करना ही उचित होगा। वे परम वैराग्य की अवस्था को प्राप्त हो गए और उन्होंने एकमात्र मोक्षपद को अनश्वर माना जिसकी प्राप्ति मुनिदीक्षा से ही सम्भव थी। उन्होंने अपने सम्पूर्ण राज्य के सुशासन को अपने योग्य पुत्र श्रेयस्कर को उत्तराधिकार में सौंप दिया। श्रेयांसनाथ जी को मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान जन्म से ही प्राप्त थे जो जीवन की एक अवस्था में पहुँचने पर उनमें परम वैराग्य की उत्पत्ति के कारण बने। उन्होंने समस्त सांसारिक बन्धनों या मोहमाया का पूर्णतः परित्याग कर मुनिदीक्षा ग्रहण कर ली। मुनिदीक्षा ग्रहण करते ही उनको मनःपर्यायज्ञान प्राप्त हुआ और उसके दो वर्ष बाद श्रावण मास की पूर्णिमा तिथि पर केवल्यज्ञान की प्राप्ति हुई। केवल्यज्ञान की प्राप्ति के पूर्व आप हजारीबाग जिले में स्थित सम्मेद शिखर पर पहुँच वहीं समाधिस्थ हो गए। अपने समस्त कर्मों को समाधि की इस अवस्था में समाप्त कर स्वयं को पुनर्जन्म के कारणों से मुक्त किया और एक महिने तक योगसाधना करते हुए केवल्यज्ञान को प्राप्त कर पांचभौतिक शरीर का परित्याग किया। इस समाधि प्राप्ति के अवसर को जैन धर्मावलम्बी मोक्षकल्याणक के रूप में पूर्ण श्रद्धा और उत्साह से मनाते हैं। आपका विशाल मन्दिर वाराणसी के समीप भगवान बुद्ध की तपःस्थली सारनाथ में धमेख स्तूप के बगल में स्थित है। बौद्ध धर्म के सर्वोच्च तीर्थ सारनाथ में स्थित आपका मन्दिर काशी में धार्मिक समन्वय का अभूतपूर्व सन्देश देता है। आचार्य समन्तभद्र ने भगवान् श्रेयांसनाथ की स्तुति करते हुए कहा है - श्रेयान् जिनः श्रेयसि वर्मनीमाः श्रेयः प्रजा शासदजेयवाक्यः / भवांश्चकाशे भुवनत्रयेऽस्मिन्नेको यथा वीतघनो विवस्वान्।। बादलों से रहित सूर्य के समान तेजस्वी श्रेयांसनाथ कल्याण के मार्ग पर निरन्तर गतिशील रहते हुए तीनों लोकों में सुशोभित हो रहे हैं। आप सभी प्रकार के शत्रुओं के विनाशक हैं। आपने प्रजाजनों के चित्त पर शासन किया अपने अजेय उपदेशवाक्यों से। 4. तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ - चौबीस तीर्थङ्करों की महान् परम्परा में वर्धमान महावीर के आविर्भाव के 200 वर्ष पूर्व तेइसवें तीर्थङ्कर के रूप में अवतार हुआ पार्श्वनाथ जी का, काशी के मध्य में स्थित भेलूपुर क्षेत्र में। आपका चिह्न सर्प (नाग) है। आपके पिता थे उग्रवंशीय क्षत्रिय महाराज अश्वसेन या विश्वसेन। आपकी माता थी वामादेवी। वैशाख मास के कृष्ण पक्ष की द्वितीया के दिन विशाखा नक्षत्र में रात्रि के अन्तिम प्रहर में माता वामादेवी को 16 मांगलिक लक्षणों का स्वप्न हुआ। माता ने पार्श्वनाथ के पूर्वजन्म आनतेन्द्र की आत्मा को अपने अन्दर धारण किया। आनत स्वर्ग से नौ महिने गर्भ में रहने के उपरान्त पौष मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी के दिन माता वामादेवी ने एक बालक को जन्म दिया। उस समय अनिल योग था और नक्षत्र था विशाखा / यही बालक बाद में तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ के रूप में प्रतिष्ठित हुआ। बालक पार्श्वनाथ ने अपने जीवनकाल के 30 वर्ष की अवस्था तक ब्रह्मचर्य व्रत का पालन किया और पौष मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी के दिन 300 राजाओं के साथ मुनिदीक्षा को प्राप्त कर गए। तपश्चर्या के मार्ग पर अनेक समस्याएँ आयीं परन्तु वे अविचलित रहे तब तक जब तक कि उनको केवलज्ञान की प्राप्ति नहीं हो गयी। आपने काशी, कोशल, पांचाल, मगध, अवन्ती, अङ्ग, बङ्ग, कलिङ्ग आदि जनपदों में व्यापक रूप से भ्रमण करते हुए जैन धर्म के सिद्धान्तों का प्रचार किया। आपका प्रधान उद्देश्य था सांसारिक कष्टों से आक्रान्त जनमानस को आत्मकल्याण की ओर प्रेरित करना। आपके अन्दर जन-जन के कल्याण की भावना कूट कूट कर भरी हुई थी। आपने जैन धर्म के अनुसार जनकल्याण के लिए स्थापित किए गए अहिंसा, सत्य, आदि के महत्त्वपूर्ण सिद्धान्तों का प्रचार किया। धर्मान्धता, पाखंड, ऊँच-नीच की भावना का निषेध करते हुए इनको समाज के एकीकरण तथा उसकी उन्नति में बाधक मान त्याज्य माना। काशी में जन्म लेने वाले तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ जी को बिहार के हजारीबाग में स्थित सम्मेद शिखर पर प्रतिमायोग से मोक्ष या निर्वाण की प्राप्ति हुई। इसके पूर्व उन्होंने समाधि की अवस्था को प्राप्त कर अपने समस्त कर्मों को विनाश किया। आपकी पहचान है सप्तफणावली (नव तथा सहस्र फणालियाँ) और पादपीठ के मध्य सर्पचिह्न। आपकी आज उपलब्ध अधिकांश मूर्तियों में ये चिह्न अङ्कित प्राप्त होते हैं। इनसे तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ की पहचान होती है। वैदिक वाङ्मय के प्रधान ग्रन्थ उपनिषदों के आध्यात्मिक चिन्तन की प्रधानता में तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ का काफी प्रभाव रहा है। काशी के 470