Book Title: Siddha Saraswat
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Abhinandan Granth Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 486
________________ निषेध नहीं वरन् उसका स्वरूप समझकर उसकी गुलामी से इन्कार कर देना। कथन तो यहां तक है कि निमित्त स्वत: अनुकूल परिणमन करेंगे, किन्तु तभी जब दृष्टि स्वभावसन्मुख होगी। निमित्त की सत्ता को स्वीकारना किन्तु इस स्वीकारोक्ति में उपादन की स्वतंत्रता को पराधीन कर देना, सम्भवतः न्याय नहीं। यही अपेक्षा समयसार को भी दृष्टिप्रधान ग्रन्थ के रूप में मान्यता देती है। जरा सोचें! द्रव्य में किस समय परिणमन नहीं है? जगत में किस समय निमित्त नहीं है? हमारे मानने या न मानने से वस्तु-स्थिति तो बदलती नहीं है। स्पष्ट है कि जगत के प्रत्येक द्रव्य में प्रति समय परिणमन हो ही रहा है और निमित्त भी सदैव होता ही है, तब फिर चिन्तन करें कि इस निमित्त के कारण यह हुआ- यह बात कहां तक टिकती है? और निमित न हो तो नहीं हो सकता, यह प्रश्न भी कहाँ तक टिकता है? यहाँ कार्य होने में और निमित्त होने में कहीं भी समयभेद नहीं है। यहाँ निमित्त का अस्तित्व कभी भी नैमित्तिक कार्य की पराधीनता नहीं बतलाता है। वह मात्र अपनी अपेक्षा नैमित्तिक कार्य को प्रकट करता है, जैसे- पूछा जाय कि निमित्त किसका? तब उत्तर दिया जायेगा कि जो नैमित्तिक कार्य हुआ उसका। यह सब बातें दृष्टि की हैं। हम संयोगी दृष्टि से भी देख सकते हैं, वियोगी दृष्टि से भी। अनेकान्त का आध्यात्मिक दृष्टिकोण यह है कि वहाँ मुख्यतः गौणता का चिन्तन उपादेयता और हेयता के रूप में होने लगता है। यहाँ आत्मानुभव की प्रबल विधेयात्मकता से शेष समस्त बन्धन स्वरूप प्रतीत होने वाले तत्त्वों के प्रति निषेधात्मक दृष्टिकोण की उत्पत्ति का सहज कारण बन जाती है। सिद्धान्त तथा शास्त्रीयता का सहारा लेकर वस्तुस्वरूप को तो यहाँ भी समझा जाता है, किन्तु उसमें से आत्माराधना में जो साधक तत्त्व हैं उनको उपादेय तथा शेष अन्य को हेय बतलाया जाता है। इस क्षेत्र में सार-सार को गहि लहे, थोथा देइ उड़ाय वाली सूक्ति का सहारा लिया जाता है। यहाँ जिसे हेय करना है, अतिरेक में उसके प्रति निषेध की भाषा भी मुखरित होने लगती है जो विवाद उत्पन्न करती हैं। पुत्र की धृष्टता से रुष्ट पिता उसे 'तू मेरे लिए मर गया' तक कह देते हैं। यहाँ मात्र दृष्टि-परिवर्तन अर्थ है, वस्तु-परिवर्तन नहीं। इसी प्रकार आध्यात्मिक दृष्टि का कथन 'निमित्त कुछ नहीं करता' का भी अभिप्राय समझना चाहिए कि निमित्त मेरे लिए कुछ नहीं। व्यवहार झूठा, जगत मिथ्या जैसे वाक्य मात्र दृष्टि- परिवर्तन की अपेक्षा से कहे जाते हैं, वस्तुपरिवर्तन की अपेक्षा से नहीं। अध्यात्म में भी निमित्ताधीन दृष्टि का निषेध है, निमित्त का नहीं ! निमित्त को कर्ता कहा जाता है, क्योंकि भाषा अक्सर कर्तृत्त्व वाली होती है, किन्तु यह व्यवहार है। वास्तव में वह सिर्फ उपरिथति के शाश्वत नियम के कारण आरोपी बन जाता है या हमारे द्वारा मान लिया जाता है कि यह भी एक सापेक्ष सत्य ही है। वस्तु-स्थिति क्या है? निमित्त स्वतंत्र है, वह अपना कार्य करता है। उपादान स्वतंत्र है, वह भी अपना कार्य करता है। दोनों एक साथ रहते हैं और अपना-अपना काम समय पर करते हैं। दोनों पदार्थ एक-दूसरे के लिए परिणमन नहीं कर रहे हैं, मात्र परस्पर उपकार कर रहे हैं। उपकार का अर्थ हमेशा कर्ता नहीं होता है। दिखाई क्या देता है? निमित्त उपादान को परिणमा रहा है, उपादान निमित्त को परिणमा रहा है। दोनों एक-दूसरे के बिना जी नहीं सकते- यह शाश्वत नियम है। निमित्तप्रिय लोग सिर्फ निमित्त को देखते हैं तो उन्हें दिखाई देता है कि निमित्त चाहे तो कुछ भी बदल दे, उपादान तो निमित्ताधीन है। उपादानप्रिय लोग सिर्फ उपादान को देखते हैं तो उन्हें दिखाई देता है कि उपादान निमित्त को परिणमा देता है, अत: वही बलवान है, निमित्त तो उसका नौकर है, इसलिए निमित्त तो उपादान के आधीन हम वो मानते हैं जो दिखाई देता है। सम्यग्दृष्टि मनुष्य दोनों को सिर्फ देखता है, पर मानता वह है जो वस्तुस्थिति है। डॉ. अनेकान्त कुमार जैन अध्यक्ष-जैनदर्शन, श्री ला.ब.शा.रा.संस्कृतविद्यापीठ, नई दिल्ली। 466

Loading...

Page Navigation
1 ... 484 485 486 487 488 489 490