________________ वैयावृत्य कहा जाता है। संयमी दो प्रकार के हैं - देशव्रती और सकलव्रती। इनके ऊपर यदि बीमारी या अन्य विपत्तियाँ आई हैं तो गुणानुराग से प्रेरित होकर उन्हें दूर करना, उनके पैर आदि अंगों का मर्दन करना तथा समयानुसार अन्य सेवा करना वैयावृत्य शिक्षाव्रत के अन्तर्गत आता है। वैयावृत्ति मात्र गुणानुराग अथवा भक्ति के वश से की जाती है, किसी स्वार्थसिद्धि के लिए नहीं। मुनियों के योग्य छह अन्तरंग तपों में एक वैयावृत्य नामक तप है। शास्त्रोक्त कथन है कि बालक, वृद्ध अथवा म्लान रूग्ण मुनियों आदि की सेवा करते हुए उन्हें मार्ग में स्थिर रखना। परस्पर की सहानुभूतिपूर्ण प्रवृत्ति से ही चतुर्विध मुनिसंघ का निर्वाह होता है। आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, शैक्ष्य, ग्लान, गण, कुल, संघ, साधु और मनोज्ञ इन दस प्रकार के मुनियों की वैयावृत्ति करने से वैयावृत्ति तप के दस भेद होते हैं। किसी नगर/स्थान पर किसी देशव्रती अथवा महाव्रती के ऊपर कोई कष्ट आया है तो वहाँ के गृहस्थ को आवश्यक है कि वह पूर्ण तत्परता से उसे दूर करने का उपाय करे। इस वैयावृत्य शिक्षाव्रत में सभी दानों का समावेश होता है। सागार को स्मरण रखना होता है'दान चार परकार, चार संघ को दीजिए'। श्रावकों के लिए प्रतिदिन छह आवश्यक कर्मों के करने का नियम बताया गया है। इसकी चर्चा हम पहले कर चुके हैं। यह भी लिखा जा चुका है कि वैयावृत्य का प्रचलित अर्थ दान है। पूज्यपाद स्वामी, अकलंक स्वामी, समन्तभद्राचार्य आदि ने जो दान के प्रकार बताएँ हैं उनमें नाम का भेद हो सकता है, विषय की भिन्नता नहीं। 1. आहार दानं, 2. औषधदान, 3. ज्ञानदान अथवा उपकरणदान, 4. अभयदान अथवा आवास या वसतिका दान नामक चार दानों को करणीय कहा गया है। चतुर्विध वैयावृत्य दान किसने किस प्रकार दिए, उनके क्या फल हुए ? सभी संदर्भो की विस्तृत कथाएँ हैं / संक्षेप में आहारदान के कारण ही मलयदेश के रत्नसंचयपुर के राजा श्रीषेण परंपरा के अनुसार तीर्थंकर शान्तिनाथ हुए। इसी प्रकार औषधदान में वृषभसेना का दृष्टान्त दिया जाता है। श्रुतदान के फलस्वरूप कौण्डेश नामक मुनि शास्त्रों में पारगामी ज्ञाता बने। वसतिका दान की फलकथा के रूप में सूकर की कथा आती है। हम सभी जानते हैं कि षडावश्यक कर्मों में पूजा का प्रथम स्थान है। वैयावृत्ति करने वाले श्रावक को देव, शास्त्र, गुरु की पूजा करना चाहिए। इसमें पूज्य और पूजक दो हैं। तीसरा शब्द पूजा है। देव, शास्त्र, गुरु के गुणों के प्रति अत्यधिक आदर भाव होने के कारण ये पूज्य हैं। परिचर्या, सेवा, उपासना को पूजा कहते हैं और समस्त दुःखों को दूर होना पूजा का फल है। इस सम्बन्ध में एक मेढक की कथा बड़ी प्रसिद्ध कथा है। संक्षेप में कथा इस प्रकार हैराजगृहनगर में राजा श्रेणिक, सेठ नागदत्त और भवदत्ता नाम की उसकी सेठानी रहते थे। एक बार वर्धमान स्वामी वैभार पर्वत पर पधारे थे। राजा श्रेणिक उनके दर्शनों को वहाँ गए। भगवान की वंदना लक्ष्य था। नागदत्त सेठ भी अपने परिवार के साथ वन्दना करने के लिए भक्तिपूर्वक निकल पड़े। उनके घर की वावड़ी में रहने वाला मेंढक भी वावड़ी से एक कमल पुष्प मुख में दबाकर पूजा का अन्तरङ्ग भाव बनाकर प्रसन्नता पूर्वक उछलता हुआ मार्ग पर निकल पड़ा। जाता हुआ वह मेंढक हाथी के पैर से कुचलकर मर गया। पूजा के भाव से वह सौधर्म स्वर्ग में ऋद्धिधारक देव बना। पूजा के प्रभाव के अतिशय को वर्धमान स्वामी से जानकर राजा श्रेणिक एवं अन्य श्रावक श्रोताओं को श्रद्धान हुआ। सभी प्रकार से वैयावृत्य मोक्षमार्ग चुनने वाले भक्त श्रावकों के लिए साधक सिद्ध होने वाला व्रत है। इसमें संदेह नहीं है। अन्त में एक बार पुन: स्मरण कराते चलें कि वैयावृत्ति गुणानुराग भाव से ही करना है, किसी स्वार्थपूर्ति की कामना से नहीं। सम्यग्दृष्टि भव्यात्माओं के लिए ऐसा बोध स्वतः ही हो जाता है। डॉ. प्रेमचन्द्र जैन 'नगला' नजीवाबाद योगसार में 'ध्यानयोग' का स्वरूप 'योगविद्या भारतीय धर्म दर्शन की अति प्राचीन काल से चली आ रही अध्यात्म विद्या है। परमतत्त्व पारगामी मनीषी अर्हत् पुरुषों एवं तीर्थंकरों ने अन्तरात्मम क्षितिजों के पार स्वयं आनन्द मूर्ति ज्ञानधन के रूप में अपने को विकसित किया था। उन्होंने योग-विज्ञान को प्राणी जीवन के परिष्कार हेतु निर्मल सत्य आनन्द के रूप में प्रकट किया। वस्तुतः समग्र मानवजीवन का विशिष्ट आध्यात्मिक रूप यह योग सम्पूर्ण विश्व में भारत की प्राचीनतम विद्या है। इसमें आत्मा की निर्मलता, अनेकान्त दृष्टियुक्त सम्यग्भाव, दर्शन-ज्ञान चारित्र का समवायत्व है, जो मानव के 461