Book Title: Siddha Saraswat
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Abhinandan Granth Prakashan Samiti

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Page 480
________________ आदि। सागारधर्मामृत नामक ग्रन्थ में पंडित आशाधर जी ने लिखा है - नरत्वेऽपि पशुयन्ते मिथ्यात्वग्रस्तचेतसः। पशुत्वेऽपि नरायन्ते सम्यक्त्वव्यक्त-चेतसः / / 2/4 / / संक्षेप में निष्कर्ष यह है कि सम्यक्त्व से ज्ञान सम्यक् होता है और सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान से तत्त्वों की उपलब्धि होती है। पदार्थों की उपलब्धि होने पर श्रेय तथा अश्रेय का ज्ञान होता है। श्रेय व अश्रेय को जानकर व्यक्ति दुःखशील आचरण को छोड़कर सम्यक्स्वभावयुक्त होकर अभ्युदयपूर्वक परमपदों को प्राप्त होता हुआ निर्वाण प्राप्त करता है। ऐसा दर्शन पाहुड में उल्लेख मिलता है। पूजा, भक्ति, वात्सल्य, वैय्यावृत्ति आदि के सही स्वरूप को जानने/पहचानने के लिए रत्नत्रय के महत्त्व का प्रतिपादन करना - विशेषरूप से सम्यग्दर्शन, सम्यक्त्व, सम्यग्दृष्टि का विवेचन आवश्यक था। पहले संकेत किया जा चुका है कि जैनदर्शन में तत्त्वों को बहुत बारीकी से समझाया गया है। हम उस विस्तार में तो नहीं जायेंगे, फिर भी सम्यग्दर्शन के अंगों के नाम आदि का उल्लेख कथनीय है। निशंकित, नि:कांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढदृष्टि, उपगूहन, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना ये सम्यग्दर्शन के आठ अंग हैं। संवेग, निर्वेग, आत्मनिन्दा, आत्मगर्हा, उपशम, भक्ति, आस्तिक्य और अनुकंपा ये आठ गुण हैं। इसी प्रकार सम्यग्दर्शन के 25 दोष भी गिनाए गए हैं। वे इस प्रकार हैं - मूढ़ता (लोक, देव और गुरुमूढ़ता), ज्ञान, पूजा, प्रतिष्ठा, कुल, जाति, बल, तप, रूप, ऐश्वर्य ये आठ मद हैं। कुगुरु, कुदेव, कुधर्म और इनके आराधक की पूजा, भक्ति, प्रशंसा ये छ: आनायतन हैं। शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, मूढदृष्टि, अनुपगृहन, अस्थितिकरण, अवात्सल्य और अप्रभावना ये आठ दोषों को मिलाकर 25 दोष हैं। गुणों सहित तथा दोष रहित सम्यग्दर्शन का पालन करना विहित है। उमास्वामी के श्रावकाचार में लिखा है कि साधुओं, साधुओं जैसी वृत्ति वाले श्रावकों एवं साधर्मी जनों की यथायोग्य प्रतिपत्ति करने को पूजा भक्ति, आदर-सम्मान आदि करने को ज्ञानियों ने वात्सल्य कहा है। आदर, वैय्यावृत्य, मिष्टवचन बोलना, सत्कार करना, साधुओं का सहकार करना आदि कार्यों को भी वात्सल्य कहा गया है। जैनधर्माचरण करने वालों के लिए सागार तथा अनगार के भेद से करणीय-अकरणीय का सैद्धान्तिक विवेचन है जिसे आगमग्रन्थों, विद्वानों, मुनियों, आचार्यों के प्रवचनों से जाना जा सकता है। सद्गृहस्थों, श्रावकों के लिए प्रतिदिन छह आवश्यक कार्य बतलाए गए हैं, जिन्हें सम्यग्दृष्टि बिना किसी फलाकांक्षा के करते हैं। वे षडावश्यक हैं - देवपूजा, गुरूपास्ति, स्वाध्यायः संयमस्तपः। दानं चेति गृहस्थानां, षट्कर्माणि दिने-दिने।। अर्थात् जिनेन्द्रदेव का पूजन, सद्गुरु की उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप और दान ये छ: कर्म नित्य-नियम से अवश्य करणीय हैं। इन सब छहों की विस्तृत परिभाषाएँ हैं। अब सीधे-सीधे वैय्यावृत्ति शीर्षक से प्रारम्भ किये गए लेख पर आते हैं। व्यावृत्तिः - दुःनिवृत्तिः प्रयोजनं यस्य तत् वैय्यावृत्यम्' - (रत्नकरण्डश्रावकाचार से) अर्थात् दुःखनिवृत्ति जिसका प्रयोजन है, उसे वैयावृत्ति कहते हैं। अन्य आचार्यों ने इसके स्थान पर अतिथिसंविभाग व्रत शब्द रखा है। इस व्रत में जिस प्रकार अतिथि के लिए दान की प्रधानता है उसी प्रकार वैयावृत्य में भी दान की प्रधानता है। क्योंकि आहार आदि दान के द्वारा अतिथि के दुखनिवारण का ही प्रयोजन होता है। इसलिए अतिथिसंविभाग व्रत शब्द पर आपत्ति होना अधिक संगत नहीं है। चूँकि इसमें चार प्रकार के दानों का तो समावेश हो जाता है, इसके अतिरिक्त संयमीजनों, मुनियों की सेवा-शुश्रूषा का समावेश नहीं होता है। अत: आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने 'वैयावृत्य' शब्द की व्यापकता के कारण इसे मान्यता प्रदान की है। इसमें दान और सेवासुश्रुषा आदि सभी का समावेश हो जाता है। अपात्र एवं पात्र की पहचान किए बिना दान देने का कोई महत्त्व नहीं है। अत: दान देते समय पात्र का विचार करना आवश्यक है। पात्र वही हो सकता है, जो तपस्वी हो, सम्यग्दर्शनादि गुणों का धारक हो, गृहत्यागी हो। साथ ही दान देते समय रत्नत्रय की वृद्धि के अतिरिक्त अन्य कोई उद्देश्यसिद्धि का भाव नहीं होना चाहिए। मुनीश्वर से मन्त्र-तन्त्र, सन्तान कामना अथवा वैभवादि की याचना नहीं होना चाहिए। अपनी सामर्थ्यानुसार आहारादि चारों प्रकार के दान देने से संक्लेशी परिणामों से बचा जा सकता है। दान के बदले में प्रतिदान की इच्छा अतिचार में आती है। ऐसा ध्यातव्य है कि न केवल दान ही वैयावृत्ति कहलाता है बल्कि संयमी जनों, व्रतियों, मुनियों की सेवा भी 460

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