Book Title: Siddha Saraswat
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Abhinandan Granth Prakashan Samiti

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Page 479
________________ विद्रुमाधर शान्तिसेन मुनीश नाक्किए बेल्गोल। अदिमेलशनादि विट्ट पुनर्भवक्के रे आगि... / / जैनागम के अनुसार समाधि सल्लेखना एक विशिष्ट क्रिया थी जिसकी आराधना के लिए प्राचीनकाल में यापज्ञापक लोग नियुक्त रहते थे। कलिङ्ग सम्राट खारवेल के प्रसिद्ध हाथीगुफा वाले शिलालेख में स्पष्ट उल्लेख है कि - सम्राट खारवेल ने अपने शासन के तेरहवें वर्ष में व्रत पूरा होने पर उन यापज्ञापकों को जो कुमारी पर्वत पर समाधियों पर याप और क्षेम की क्रियाओं में प्रवृत्त थे वहाँ राजभृतियों को नियुक्त किया। इससे सल्लेखना समाधि का प्राचीन रूप स्पष्ट होता है। इसके पश्चात् भी श्रवणबेलगोल तथा अन्य अनेक स्थानों से आचार्यों व मुनियों के समाधिमरण के वृतान्त आगम में वर्णित हैं। राजा-महाराजाओं में राष्ट्रकूट वंश के सम्राट इन्द्र चतुर्थ व गङ्गवंश के सम्राट मारसिंह गुत्तिय गङ्ग के सल्लेखना के वृत्तान्त उल्लेखनीय हैं। राठोड़ नरेश इन्द्रराज ने भी सल्लेखना व्रत धारण किया और सन् 982 में समाधिमरण को प्राप्त किया। महारानी शान्तलदेवी होयसल नरेश विष्णुवर्द्धन की पटरानी थीं। वे आदर्श जैन महिला थीं और उन्होंने ही शिवगङ्गा में सल्लेखना विधि धारण कर समाधिमरण को प्राप्त किया। इस प्रकार जैनागम में सल्लेखना की प्राचीन परम्परा रही है जो अब तक निर्बाध गति से चली आ रही है। वर्तमान समय के प्रमुख आचार्य शान्तिसागरजी (दक्षिण) ने भी सल्लेखनापूर्वक समाधिमरण प्राप्त किया। इसके साथ ही आचार्य विद्यासागरजी के गुरु आचार्य ज्ञानसागरजी ने भी सल्लेखना व्रत धारण कर समाधिमरण किया। इससे यह सिद्ध होता है कि जैन समाज में आत्मघात को कभी प्रश्रय नहीं दिया गया अपितु यह अन्तिम समय एक सुनिश्चित रीतिपूर्वक देहत्याग की अनुपम कला है जिसे सल्लेखनापूर्वक समाधिमरण कहा जा सकता है। श्री अखिल बंसल सम्पादक - समन्वयवाणी, जयपुर, महामन्त्री - अ.भा.दि. जैन विद्वत्परिषद् वैय्यावृत्ति : कहाँ, कैसे और क्यों ? प्रायः जैन श्रावक-श्राविकाओं अथवा सद्गृहस्थ वैय्यावृत्ति शब्दार्थ के सामान्य अर्थ से तो सभी परिचित हैं। परन्तु इसके विशेष संदर्भो को जाने बिना क्रिया में ले आने से दोषपूर्ण परिणति की संभावना निर्मूल नहीं होती। अतएव इस वैय्यावृत्त संज्ञक शिक्षाव्रत के स्वरूप का वर्णन और इसका मूलाधार- कहाँ, कैसे और क्यों ? आदि पर समझने के लिए लेख लिखना आवश्यक समझा गया है। आसान सी दिखने वाली क्रिया अतिगम्भीर एवं इतनी महत्त्वपूर्ण है कि अपनी काल-लब्धि पर भवसागर से पार करा देती है। षोडशकारण पूजन की जयमाला में आता है - 'निश-दिन वैय्यावृत्त करैया, सो निहचै भव-नीर तिरैया' इसी प्रकार जयमाला में आगे आता है, 'वत्सल अंग सदा जो ध्यावै, सो तीर्थंकर पदवी पावै'। दरअसल जैनधर्म व दर्शन दोनों ही वैज्ञानिक हैं। मोक्षप्राप्ति या सांसारिक जन्ममरण से पूर्ण छुटकारा इसका लक्ष्य है, जो अति दुरूह है, असंभव नहीं है। पूजा, भक्ति, वात्सल्य, दान, वैय्यावृत्ति आदि उसी दिशा में बढ़ने के उपाय हैं। जब तक जिनेन्द्र भगवान् द्वारा बताये गये तत्त्व सिद्धान्तों पर दृढ़ विश्वास नहीं होगा, सभी कुछ मिथ्या लग सकता है। ऐसा लगने से निष्फल हो ही जायेगा। अतः पहली शर्त है - सम्यग्दर्शन का होना। यह तभी होगा जब तत्त्वों पर श्रद्धान होगा। तत्त्वार्थ सूत्र के प्रथम अध्याय का दूसरा सूत्र है - 'तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्'। जैनधर्म में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को रत्नत्रय की संज्ञा दी गई है। वस्तुतः ये रत्नाभूषणों की अपेक्षा अधिक मूल्यवान् हैं। चूँकि जिनेन्द्र भगवान् के बताए गए मोक्षमार्ग का निर्देशन भी करते हैं - 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का युग्पद् होना मोक्षमार्ग है। सम्यग्दर्शन के बिना नियमत: सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र नहीं होतें। इसीलिए रत्नत्रय में इसका प्रथम एवं महत्त्वपूर्ण स्थान है। ऐसा भी शास्त्रोक्त कथन है कि सम्यग्दर्शन के बिना न तो मुनि धर्म सम्भव है और न ही सागारधर्म। अतएव ऐसा मानना भी युक्तियुक्त है कि सम्यक्त्व से बढ़कर न कोई मित्र है और न ही सम्पदा। इसी प्रकार मिथ्यात्व से बढ़कर न कोई शत्रु है और न रोग 459

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