Book Title: Siddha Saraswat
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Abhinandan Granth Prakashan Samiti

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Page 478
________________ जन्म-मरण का अभाव क्यों नहीं हुआ? आ. समन्तभद्र कहते हैं कि अन्तक्रिया रूप जो सन्यास-मरण होता है, उससे ही तप सार्थक होता है। तप करने वाले के यदि अन्त समय में सन्यास मरण नहीं होता है तो उसका तप निष्फल कहा जाता है। - (रत्नकरण्ड श्रावकाचार, भाषा, पृष्ठ-453) आचार्य शिवार्य कृत भगवती आराधना में सल्लेखना के महत्त्व को निम्न प्रकार दर्शाया गया है - एगम्मि भवग्गहणे समाधिमरणेण जो मदो जीवो। ण हुं सो हिंसादि बहुसो सत्तठ्ठ भवे पमत्तूण / / अर्थात् जो भद्र एक पर्याय में समाधिमरण पूर्वक मरण करता है, वह संसार में सात-आठ पर्याय से अधिक परिभ्रमण नहीं करता। आ. समन्तभद्र ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार के श्लोक 124-125 में सल्लेखना विधि निम्न प्रकार बतलाई है - स्नेहं वैरं सङ्गं परिग्रहं चापहाय शुद्धमना। स्वजनं परिजनमपि च क्षान्ताक्षमयेत् प्रियैर्वचनैः।। आलोच्यसर्वमेनः कृत्कारितमनुमतं च निर्व्याजम् / आरोपयेन्महाव्रतमामरणस्थापि निःशेषम्।। अर्थात् स्नेह, बैर, परिग्रह को छोड़कर शुद्ध होता हुआ प्रिय वचनों से अपने कुटुम्बियों और कर्मचारियों से भी क्षमाभाव करावे और आप भी सबको क्षमा करें। छलकपट रहित होकर, कृतकारित-अनुमोदना सहित किये हुए समस्त पापों की आलोचना करके मरणपर्यन्त उपचरित महाव्रतों को धारण करे। क्रम-क्रम से आहार को छोड़कर दुग्ध-छाछ को बढ़ावे और पीछे दुग्धपान को छोड़कर गरमजल को बढ़ावे। तत्पश्चात् गरमजल पान का भी त्याग करके और शक्त्यनुसार उपवास करके पञ्च नमस्कार मन्त्र को मन में धारण करता हुआ शरीर को छोड़े। आत्मघात नहीं है सल्लेखना - जो लोग सल्लेखना अथवा समाधि को नहीं समझते वे इसे आत्मघात कहने से नहीं चूकते। इस सम्बन्ध में आत्मख्याति के रचयिता आ. अमृतचन्द्र ने पुरुषार्थसिद्धयुपाय में स्पष्ट लिखा है - मरणेऽवश्यंभाविनि कषाय-सल्लेखनातत् करणमात्रे। रागादिमन्तरेण व्याप्रियमाणस्य नाऽत्मघातोऽस्ति।। अर्थात् मरण अवश्यम्भावी है - ऐसा जानकर कषाय का त्याग करते हुए, राग-द्वेष के बिना ही प्राणत्याग करने वाले मनुष्य को आत्मघात नहीं हो सकता। उक्त श्लोक की टीका करते हुए पण्डित प्रवर टोडरमलजी ने लिखा है - यहाँ कोई कहेगा कि सन्यास में तो आत्मघात का दोष आता है? अर्थात् सल्लेखना करने वाला पुरुष जिस समय अपने मरण को अवश्यम्भावी जानता है, तब संन्यास अङ्गीकार करके कषाय को घटाता है और रागादि को मिटाता है; इसलिए आत्मघात का दोष नहीं है। आ. अमृतचन्द्र पुरुषार्थसिद्धयुपाय के श्लोक 177-178 में आत्मघात का स्वरूप स्पष्ट करते हुए लिखते हैं - यो हि कषायाऽविष्टः कुम्भकजलाधूमकेतुविषशस्त्रैः। व्यपरोपयति प्राणान् तस्य स्यात्सत्यमात्मवधः।। अर्थात् जो जीव क्रोधादि कषायसंयुक्त होकर श्वास-निरोध करके अर्थात् फाँसी लगाकर जल में डूबकर, अग्नि में जलकर, विष भक्षण कर या शस्त्रादि के द्वारा अपने प्राणों का वियोग करता है; उसको सदाकाल अपघात (आत्मघात) का दोष लगता है। अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु और उनके शिष्य सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य जो प्रभाचन्द्राचार्य के नाम से विख्यात हुए वे दक्षिण भारत के कटवप्र पर्वत पर सल्लेखना व्रत का पालन करते हुए समाधिमरण को प्राप्त हुए। यह वृत्तान्त श्रवणबेलगोल स्थित शिलालेख संख्या 182 शक सम्बत् 522 में उत्कीर्ण है। उनके पश्चात् क्रमशः सात सौ मुनियों ने भी चन्द्रगुप्त की समाधिस्थल पर रहकर तप किया और उन्होंने भी वहीं से समाधिमरण किया। उनके पश्चात् शान्तिसेन मुनि ने श्रवणबेलगोल पर्वत पर अशन आदि त्याग कर पुर्नजन्म को जीत लिया। सल्लेखना की यह महत्त्वपूर्ण वार्ता शिलालेख संख्या 17-18 (31) शक सम्वत् 572 में निम्न शब्दों में अङ्कित है। श्रीभद्रबाहु स चन्द्रगुप्त मुनीन्द्र युग्मदिनोप्पेवल् / भद्रमागिद् धर्ममन्दु बलिक्के वन्दिर्निसल्फली।। 458

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