Book Title: Siddha Saraswat
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Abhinandan Granth Prakashan Samiti

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Page 476
________________ सीमा में आकाश में कोई व्यंतर अपना चैत्यालय लिए घूम रहा हो उसमें विराजे जिन भगवंतो की आराधना का अर्घ अन्त में चढ़ाकर शान्तिपाठ/विसर्जन करना चाहिए। पूजाभक्ति में इन परिणामों के साथ पूज्य की आराधना कर पूजक अपार शुभाश्रव के साथ निर्जरा भी करता है। द्रव्य अर्पण की महत्ता - श्री वसुनन्दी आचार्य ने अपने श्रावकाचार ग्रन्थ में लिखा है कि जल से पूजा करने से पाप रूपी मैल का संशोधन होता है। चन्दन चढ़ाने से मनुष्य सौभाग्य से सम्पन्न होता है। अक्षत चढ़ाने से अक्षय निधि रूप मोक्ष को प्राप्त करता है तथा अक्षीण-लब्धि प्राप्त कर मुक्त होता है। पुष्प से पूजन करने वाला कामदेव के समान समर्चित देहवाला होता है। नैवेद्य चढ़ाने से शक्ति कान्ति और तेज से सम्पन्न होता है। दीप से पूजन करने वाला केवलज्ञानी होता है। धूप से पूजन करने से त्रैलोक्य व्यापी यशवाला होता है। फल से पूजन करने वाला निर्वाण सुख रूप फल को प्राप्त करना है। अर्घ आठों अक्षय निधियों की प्राप्ति का प्रतीक है। निर्माल्य- जिनेन्द्र भगवान की आराधना के निमित्त लाई गई सामग्री अथवा चढ़ाई गई सामग्री को किसी भी रूप में श्रावक को ग्रहण नहीं करना चाहिए। अष्ट द्रव्यादि सामग्री असहाय जीवों तथा पशु-पक्षियों को डाल देना चाहिए। जो मूल्यवान साज सज्जा या पुन: उपयोगी वस्तुएं हैं उन्हें मंदिर जी के भण्डार गृह में ही रखें। और पुनः पुन: उपयोग के बाद अनुपयोगी होने पर किसी नदी तालाब में उन्हें विसर्जित कर देना चाहिए। जिससे उस वस्तु के प्रति ममकार अथवा ग्राह्यता की भावना न रहे। आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने नियमसार ग्रन्थ की गाथा 32 में लिखा है कि जिनशासन के आयतनों की रक्षार्थ एवं अपनी आराधना के निमित्त प्रदान किए हुए दान को जो मनुष्य लोभ बस ग्रहण करे तो वह पुरुष नरकगामी महापापी है। राजवार्तिक ग्रन्थ में भी लिखा है- मंदिर के गन्ध, माल्य, धूप आदि का चुराना अशुभ नाम कर्म के आश्रव का कारण है। अथवा देव के लिए निवेदित या अनिवेदित किए गए द्रव्य का ग्रहण अन्तराय कर्म के आश्रव का कारण है। धवलादि ग्रन्थों में भी इसी तरह निर्माल्य के संदर्भ में विशेष विवेचन आया है। इस लेख के आधार ग्रन्थ हैं - जैनाभिषेक (आ. पूज्यपाद), शान्तिचक्र (आ.अभयनन्दी), बज्रपंजर (आ. मल्लिषेण), जिन- पूजा विधि (शोध-निबंध, श्री सोरया जी), नियमसार (कुन्दकुन्दाचार्य), राजवार्तिक, जिनयज्ञ-कल्प (पं.आशाधरजी), देवपूजा ( आ. पद्मनन्दीजी), सिद्धचक्राष्टक (आ. श्रुतसागर), श्रुतस्कन्ध पूजा (आ.श्रुतसागर), रत्नकरण्डकश्रावकाचार (आचार्य, समन्तभद्र), आदिपुराण (श्री जिनसेन स्वामी), पद्मनन्दी पञ्चविंशति (आ.पद्मनन्दीजी), धवला पुस्तक 8 (आ.भूतवली स्वामी), पूजा के प्रकार (आ.सोमदेव), वसुनन्दी श्रावकाचार (आ.वसुनन्दी)। लेखक-प्रतिष्ठाचार्य पं. बर्द्धमान कुमार जैन सोरया प्राचार्य टीकमगढ़ मोक्षमार्ग-पाथेय : सल्लेखना (इस सन्दर्भ में सुदर्शन लाल जैन द्वारा लिखित आलेख 'सल्लेखना क्यों और कैसे' जो इसी ग्रन्थ में छपा है द्रष्टव्य है:) जिसका जन्म हुआ है, उसकी मृत्यु सुनिश्चित है। खिले हुए फूल और पके हुए फल कभी डाल पर लगे नहीं रह सकते। सूर्य और चन्द्रमा भी उदय और अस्त होने की प्रक्रिया से प्रतिदिन ही गुजरते हैं। प्राणी मात्र का जन्म और मृत्यु के कालचक्र से बचना असम्भव है अर्थात् जिसका जन्म हुआ है उसकी मृत्यु सुनिश्चित है। कबीरदासजी की निम्न पंक्तियाँ इस अटल सत्य को स्वीकार कर रही हैं - माली आवत देख करि, कलियन करी पुकार। फूले-फले चुन लिए, काल हमारी बार।। जैनाचार्यों ने श्रावकाचार में मृत्यु को मृत्यु-महोत्सव के रूप में व्याख्यायित किया है। जैनागम में इसप्रकार की मृत्यु को सल्लेखना, समाधिमरण, पण्डितमरण या संथारा नामों से भी अभिहित किया है। इसे जीवन की अन्तिम साधना के रूप में माना गया है जिसके आधार पर साधक अपने आपको मृत्यु के समीप देखकर सब कुछ शनैः-शनैः त्यागकर 456

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