________________ आदिपुराण में द्रव्य पूजा के चार प्रकार कहे हैं - 1. सदार्चना (नित्यमह)- प्रतिदिन अपने घर से गन्ध, पुष्प, अक्षत, फल आदि ले जाकर जिनालय में श्री जिनेन्द्र देव की पूजा करना सदार्चन है। भक्तिपूर्वक अर्हतदेव की प्रतिमा और मंदिर का निर्माण करना, दान-पत्र पर खेत खलिहान भवन आदि श्री जिन मंदिर की व्यवस्था हेतु देना भी सदार्चन ही है। 2. चतुर्मुख (सर्वतोभद्र)- मुकुटबद्ध राजाओं के द्वारा जो महायज्ञ किया जाता है वह चतुर्मुख यज्ञ कहलाता है। 3. कल्पद्रुम- चक्रवर्ति के द्वारा किमिच्छिक दान देते हुए जो पूजा की जाती है वह कल्पद्रुम है। इसमें तीर्थङ्कर के समवशरण की रचना कर उसके पार्श्व में विधिवत् तीर्थङ्कर की पूजा की जाती है। 4. आष्टाह्निक- अष्टाह्निका पर्व में जो पूजा की जाती है वह अष्टाह्निक पूजा है। इसमें सभी श्रावक अष्टाह्निक पर्व में विशेष आराधना करते हैं। इसके सिवाय इन्द्र के द्वारा जो महायज्ञ किया जाता है वह 'इन्द्रध्वज' विधान है। इसके अलावा जो अन्य प्रकार की पूजाऐं हैं वे इन्हीं भेदों में अर्न्तभूत हैं। धवला पुस्तक 8 खण्ड 3 में लिखा है कि अष्टद्रव्य से अपनी भक्ति प्रकाशित करने का नाम पूजा है। वसुनन्दी श्रावकाचार में लिखा है कि जिनेन्द्र पूजन के समय जिन भगवान के आगे जलधारा छोड़ने से पापरूपी मैल का संशोधन हो जाता है। इसी प्रकार एक एक द्रव्य के अर्पण से अनेक अनेक सौभाग्यों का प्राप्त करना कहा है। पूजा के भेद- श्री सोमदेव आचार्य ने छह प्रकार से पूजा करने का निर्देश दिया है1. प्रस्तावना-जिनेन्द्र देव का गुणानुवाद करते हुए जिनेन्द्र प्रतिमा पर जल के द्वारा अभिषेक विधि सम्पन्न करना प्रस्तावना है। 2. पुराकर्म-जिस पात्र में अभिषेक के लिए प्रतिमा स्थापित की जाती है उसके चारों कोनों पर चार जलपूर्ण कलश स्थापित करना पुराकर्म है। 3. स्थापना- अभिषेक के लिए जिन प्रतिमा को थाली में स्थापित करना स्थापना है। 4. सन्निधापन- भगवान जिनेन्द्र की प्रतिमा का अभिषेक करने के लिए तैयार हो जाना। 5. पूजा- अभिषेक के बाद जिन-पधि सम्पन्न करना। 6. पूजाफल- समस्त जीवों के कल्याण की भावना करना पूजाफल है। आचार्य श्री वसुनन्दी स्वामी ने वसुनन्दी श्रावकाचार में भगवान जिनेन्द्रदेव की पूजा के छह भेद कहे हैं1. नाम- अरिहंत आदि का नाम उच्चारण करके विशुद्ध प्रदेश में जो पुष्प क्षेपण किए जाते हैं उसे नाम पूजा जानना। 2. स्थापना- आकार आदि में या आकारवान वस्तुओं में अरिहंतादि के गुणों का आरोपण करना भाव पूजा स्थापना है। तथा अक्षत आदि में अमुक देवता है ऐसा संकल्प कर उच्चारण करना असद्भाव पूजा स्थापना है। हुण्डापसर्पिणी काल में असद्भाव स्थापना पूजा नहीं करना चाहिए क्योंकि कुलिङ्गमतियों से मोहित इस लोक में सन्देह हो सकता है। 3. द्रव्यपूजा- जल आदि द्रव्यों से प्रतिमा की जो पूजा की जाती है उसे द्रव्यपूजा कहते हैं। अर्थात् अरिहंतादि के लिए गंध, पुष्प, दीप, धूप, अक्षत, फल आदि समर्पण करना द्रव्य पूजा है। 4. क्षेत्रपूजा- जिनेन्द्र भगवान के प्रत्येक कल्याणक युक्त भूमि की अष्टद्रव्य से की गई पूजा क्षेत्रपूजा कहलाती है। 5. कालपूजा- जिस दिन तीर्थङ्करों के कल्याणक हुए हैं उस दिन तीर्थङ्कर प्रतिमा का अभिषेक कर पूजन करना अथवा नन्दीश्वर आदि की अष्टाह्निक पर्यों में जो जिन-महिमा की जाती है वह कालपूजा जानना चाहिए। 6. भावपूजा- मन से अरिहंतादि के गुणों का चिन्तन करना भावपूजा है अथवा णमोकार पदों के द्वारा अपनी शक्ति के अनुसार जाप करे या स्तोत्र का पाठ करे यह भावूपजा है। पूजा की महत्ता- आचार्यश्री पदमनन्दी स्वामी ने "पद्मनंदि पञ्चविंशाति" नामक ग्रन्थ में लिखा है - ये जिनेन्द्रं न पश्यन्ति पूजयन्ति स्तुवन्ति न। निष्फलं जीवनं तेषां धिक् च गृहाश्रमम्॥ जो जीव भक्ति से जिनेन्द्र भगवान का न तो दर्शन करते हैं, न पूजन करते हैं और न ही स्तुति करते हैं उनका जीवन निष्फल है तथा उन गृहस्थों को धिक्कार है। इसी प्रकार पञ्चाध्यायी ग्रन्थ में लिखा है कि - पूजामप्यर्हतां कुर्याद्यद्वा प्रतिमासु तद्धिया / स्वर-व्यञ्जनादि संस्थाप्य सिद्धानप्यर्चयेत्सुधीः।। 732 454