________________ मृत्यु का वरण करता है इस प्रकार की मृत्यु को निष्प्रतिकार मरण कहा गया है। इसके अनुसार जब तक शरीर में प्राण हैं तब तक अहिंसक विधि से इलाज कराना चाहिए परन्तु जब डॉक्टरों के अनुसार किसी भी प्रकार बचना सम्भव ही न हो तब शान्ति परिणामों से आत्मचिन्तन पूर्वक जीवन के अन्तिम क्षण तक सुसंस्कारों के प्रति समर्पित रहते हुए सल्लेखना ग्रहण करना चाहिए। इस विधि को धैर्यपूर्वक अन्तिम समय तक ससम्मान जीने की कला के रूप में निरूपित किया गया है। सल्लेखना या समाधिमरण संयमपूर्ण आचरण का अन्तिम पड़ाव है। मनुष्य जीवन में संयम और व्रतों की आराधना इसी सल्लेखना प्राप्ति के लिये की जाती है। जहाँ पाक्षिक, नैष्ठिक एवं साधक की श्रेणियों में विभक्त जैन श्रावक अपनी-अपनी भूमिका के अनुसार समाधिमरण प्राप्ति की भावना भाते हुए इस नश्वर देह का परित्याग करते हैं वहीं श्रमणचर्या में रत साधु आहार और कषायों को कृश करते रहने का उद्यम करते हैं। गुप्ति, समिति, मूलगुण आदि का निरतिचार पालन करते हुए वे अपनी चर्या के माध्यम से भावों की शुद्धि का निरन्तर प्रयास करते हैं। जैनदर्शन में सल्लेखना का शाब्दिक अर्थ है - सत्+लेखना-सल्लेखना। इसका अर्थ है। सम्यक् प्रकार से काय एवं कषायों को कृश करना। क्षु. जिनेन्द्र वर्णी ने शान्तिपथ प्रदर्शक में सल्लेखना का अर्थ अपने त्रिकाली स्वभाव को सम्यक् प्रकार से देखना बताया है। सर्वार्थसिद्धि में आचार्य पूज्यपाद ने काय एवं कषायों को भली प्रकार से लेखन करना अर्थात् कृश करना, कमजोर करना सल्लेखना माना है। जैनसिद्धान्त कोश के अनुसार - जिसने सल्लेखना धारण करके कषायों को कृश किया है, समताभाव धारण करके वीतराग धर्मरूपी अमृतपान किया है - ऐसा धर्मात्मा साधक असंख्यात काल तक स्वर्ग का भौतिक सुख भोगता है फिर मनुष्यों में उत्तम राजा आदि के वैभव को पाकर पश्चात् उन संसार-शरीर भोगों से विरक्त होकर शुद्ध संयम अङ्गीकार करके निःश्रेयस्रूप निर्वाण का आस्वादन करता है, अनुभव करता है। तात्पर्य यह है कि स्व शुद्धात्मा की आराधना अर्थात् निर्मल रत्नत्रय परिणति का होना समाधि है और उस समाधिपूर्वक देह का परित्याग करना समाधिमरण है। आ. समन्तभद्र स्वामी रत्नकरण्ड श्रावकाचार श्लोक 130 में लिखते हैं - निःश्रेयसमभ्युदयं निस्तीरं दुस्तरं सुखाम्बुनिधिम्। निष्पिबति पीतधर्मा सर्वैर्दुःखैरनालीढः।। अर्थात् समाधिमरण धारण कर जिन्होंने धर्मामृत पान करते हुए आत्मा को पवित्र किया है वे स्वर्ग में अनुपम अभ्युदय के स्वामी बनकर अन्त में सम्पूर्ण दुःखों से रहित हो - जिसका कभी विनाश नहीं ऐसे अत्यन्त दुर्लभ मुक्ति स्वरूप सुखसागर के पान में निमग्न हो जाते हैं। अर्थात् समाधिमरण द्वारा अर्जित धर्म के प्रसाद से स्वर्ग के साथ अन्त में अनुक्रम से मुक्ति भी प्राप्त हो जाती है। अतः प्रत्येक विचारशील गृहस्थ को जैनधर्म के अनुसार समाधिमरण की विधि और उसकी महत्ता पर विचार कर लाभ उठाना चाहिए। आगम-ग्रन्थों में स्थिरता के साथ आत्मा के स्वभाव में रहना धर्म बताया है। राग-द्वेषादि विकारी भावों से अन्तरङ्ग में महान् क्षोभ की उत्पत्ति होती है जिससे धर्म का अभाव होता है। वे विकारी भाव प्रत्येक क्षण चित्त को चञ्चल करते हैं जो मोह के सागर में डुबोने वाले हैं इनको रोक पाना कठिन है। अतः धर्म की स्थिति बनाए रखने के लिए प्रसन्नतापूर्वक देहादि से ममत्व बुद्धि छोड़कर समाहित होना ही समाधिमरण का प्रथम सोपान बताया है। इस सम्बन्ध में आ. अमितगति (द्वितीय) मरणकण्डिका में लिखते हैं - समाहितं मनो यस्य वश्यं त्यक्ताशुभास्त्रवम् / उह्यते तेन चारित्रमश्रान्तेवापदूषणम् / / 5/139 अर्थात् जिसका मन अशुभ आस्रव के प्रवाह से रहित है तथा अपने वश में है, वह समाहित कहा जाता है। समाहित चित्तवाला ही निर्दोष चारित्र को धारण करता है। समाधि का अर्थ है - ऐसे ज्ञानानन्द जीवन की उपलब्धि जो आज तक कभी एक बार भी प्राप्त नहीं हुई। अनादिकाल से लेकर अब तक संसारी जीव ने मन तथा इन्द्रियों के माध्यम से क्लेशकारक एवं सन्तापजनित सुखाभास रूप जिस इन्द्रिय सुख को अनन्तबार प्राप्त किया है वह आकुलता किंवा दुःखदायक ही सिद्ध हुआ है। अतः सुख क्या है? वह परमसुख आज तक क्यों प्राप्त नहीं हुआ? इसका विचार कर! जन्म-जन्मान्तरों में किए गए तप से भी आज तक 457