Book Title: Siddha Saraswat
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Abhinandan Granth Prakashan Samiti

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Page 460
________________ प्रकामं सेव्यतां छात्रैः संस्कृतैषा प्रवेशिका।। सुधिया सुहृदा सम्यग् ग्रन्थरत्नमकारि यत्। कण्ठे कृत्वा तु तत् प्रेम्णा सर्वे सन्तु सुदर्शनाः / / प्रो. डॉ. वाचस्पति उपाध्याय, संस्कृत विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली -संस्कृत-प्रवेशिका संस्कृत व्याकरण और रचना की अद्वितीय पुस्तक है। डॉ. राय अश्विनी कुमार, प्रोफेसर, संस्कृत विभाग, मगध विश्वविद्यायलय, बोध गया- डॉ. जैन द्वारा लिखित संस्कृत-प्रवेशिका को मैं बी.ए., एम.ए., शास्त्री तथा आचार्य कक्षाओं के लिए संस्तुत करता हूँ। डॉ. शिवबालक द्विवेदी, प्राध्यापक, डी.ए.वी. कालेज, कानपुर- संस्कृत-प्रवेशिका देखकर बड़ी प्रसन्नता हुई। इसमें संस्कृत व्याकरण, अनुवाद और निबन्धों को सुबोध शैली में प्रस्तुत किया गया है। डॉ. उमेशचन्द्र पाण्डेय, रीडर, संस्कृत विभाग, गोरखपुर विश्वविद्यालय, गोरखपुर- संस्कृत व्याकरण, अनुवाद और निबन्ध के लिए डॉ. जैन की संस्कृत-प्रवेशिका एक आदर्श पुस्तक है। प्रो. प्रभाकर शास्त्री, अध्यक्ष, संस्कृत विभाग, राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर- गम्भीर विषय को सरल ढंग से प्रस्तुत करने में डॉ. जैन सिद्धहस्त हैं। संस्कृत-प्रवेशिका, प्राकृत-दीपिका, तर्कसंग्रह आदि उसके निदर्शन हैं। प्रो. गोपबन्धु मिश्र कुलपति, सोमनाथ विश्वविद्यालय, सोमनाथ तर्कसंग्रह : एक समीक्षा भारतीय दर्शन की आस्तिक परम्परा में न्याय-वैशषिक दर्शन की प्रमुख भूमिका रही है। महर्षि गौतम के न्यायसूत्र से न्यायदर्शन का उद्गम हुआ। इस पर वात्स्यायन आचार्य द्वारा लिखा गया न्यायभाष्य, उद्योतकर रचित 'न्यायवार्तिक', वाचस्पति मिश्र प्रणीत 'न्यायवार्तिक-तात्पर्यटीका' और उदयनाचार्य कृत 'न्यायवार्तिक-तात्पर्यटीकापरिशुद्धि' जैसे ग्रन्थ न्यायदर्शन की सुदृढ परम्परा को दर्शाते हैं। यह परम्परा आगे बढ़ते हुए एक नये उत्कर्ष को प्राप्त करती है। यह वह समय था जब भारतवर्ष से बौद्ध धर्म का समापन हो चुका था। ऐसे समय में एक नवीन विचाराधारा वाले न्याय सिद्धान्त का प्रादुर्भाव हुआ जिसे 'नव्य न्याय' की संज्ञा दी गई। न्याय दर्शन में जहाँ प्रमाण तथा प्रमेयादि सोलह पदार्थों के तत्त्वज्ञान से मोक्ष की प्राप्ति का प्रतिपादन किया गया है वहीं इसके समान तन्त्र वैशेषिक दर्शन में द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय एवम् अभावरूप सात पदार्थों के साधर्म्य-वैधर्म्य के ज्ञान से (तत्त्वज्ञान द्वारा) निःश्रेयस् की प्राप्ति का सिद्धान्त वैशेषिकाचार्य कणाद मुनि का है। न्याय दर्शन के प्रारम्भिक ज्ञानहेतु 'तर्कभाषा' के सदृश 'तर्कसंग्रह' का भी विशेष महत्त्व है। तर्कसंग्रह में प्रमाणों की विवेचना में न्याय दर्शन और प्रमेयों के चिन्तन में वैशेषिक दर्शन का स्पष्ट प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। अन्नम् भट्ट विरचित तर्कसंग्रह की समीक्षा तब तक पूर्ण नहीं हो पाती है जब तक संस्कृत की 'दीपिका' टीका के साथ इसका अध्ययन न कर लिया जाय किन्तु संस्कृत टीका सर्वबोधगम्य न होने के कारण इसकी हिन्दी टीका की आवश्यकता बनी रहती है। इसी को ध्यान में रखते हुए प्रोफेसर सुदर्शन लाल जैन जी (भूतपूर्व कला सङ्काय प्रमुख एवं संस्कृत विभागाध्यक्ष, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी) ने तर्कसंग्रह पर व्याख्या लिखी है। न्याय-वैशेषिक का आद्य ग्रन्थ होने पर भी इसके पारिभाषिक शब्दों की स्पष्ट विवेचना के बिना इसके विषय विद्यार्थियों के लिए जटिल ही होते हैं। प्रो. जैन जी ने 'बालानां बोधाय' को ध्यान में रखते हुए तर्कसंग्रह की अत्यन्त सरल शब्दों में व्याख्या कर इसे सुबोध बना दिया है। दुरूहस्थलों पर दार्शनिक सिद्धान्तों को भी स्पष्ट किया है। आचार्य वात्स्यायन की 'प्रमाणैरर्थपरीक्षणं न्यायः' इस पंक्ति के अनुसार (प्रमाण और तर्क (युक्तियों) के द्वारा किसी सिद्धान्त (अर्थ) की परीक्षा करना न्याय है) न्याय की इस परिभाषा को साकार करने में अनुमान प्रमाण का आश्रय लेना आवश्यक हो जाता है। ऐसी स्थिति में न्याय शास्त्र में अनुमान प्रमाण की भूमिका महत्त्वपूर्ण हो जाती है। अनुमान प्रमाण अपने स्वरूप, भेदों तथा हेत्वाभासों की विवेचना से अत्यन्त क्लिष्ट हो जाता है। अनुमान के दुरूह स्वरूप का प्रो. जैन जी ने सरलीकरण करके इसकी विस्तृत एवं स्पष्ट व्याख्या प्रस्तुत की है। न्याय-वैशेषिक दर्शन के जिज्ञासु छात्रों के लिए 'तर्कसंग्रह' की यह व्याख्या अत्यन्त 440

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