________________ उत्तराध्ययन में चारित्र और ज्ञान की पूर्णता के लिये संन्यास को आवश्यक माना गया है। इस आश्रम में रहनेवाले को साधु या श्रमण कहा गया है जिसका अन्तिम लक्ष्य मुक्ति है। इस प्रकरण में श्रमणत्व को अङ्गीकार करने से लेकर मुक्ति की पात्रता तक का वर्णन किया गया है। पञ्चम प्रकरण में साधुओं के विशेष साध्वाचार का वर्णन किया गया है जिसमें तपश्चर्या, परीषह-जय, साधु-प्रतिमायें तथा समाधिमरण पर विचार किया गया है। षष्ठ प्रकरण में सम्पूर्ण साधना के प्रतिफल रूप 'मुक्ति' का वर्णन किया गया है जिसमें प्रमुख रूप से जीवन-मुक्ति और विदेह-मुक्ति का वर्णन किया गया है। सप्तम प्रकरण में समाज और संस्कृति का विवेचन किया गया है। वस्तुत: कोई भी साहित्य तत्कालीन समाज का दर्पण होता है। उत्तराध्ययन मुख्यतः धर्म और दर्शन का प्रतिपादन करता है किन्तु इससे तत्कालीन समाज और संस्कृति का भी प्रभाव परिलक्षित होता है। अन्तिम अष्टम प्रकरण में ग्रन्थ की उपयोगिता का वर्णन करते हुये प्रबन्ध का परिशीलनात्मक सिंहावलोकन किया गया है। यह बताया गया है कि भले ही उत्तराध्ययन मुमुक्षु के लिये जिस तत्त्वज्ञान, मुक्ति और मुक्ति-पथ का उल्लेख करता है वह विशेष रूप से श्रमणों के लिये है किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि यह केवल साधुओं के लिये उपयोगी है क्योंकि इसमें सरल, साहित्यिक कथात्मक शैली में व्यवहारोपयोगी गृहस्थ धर्म का भी प्रतिपादन होने से यह जनसामान्य के लिये भी अत्यन्त उपयोगी है। इस प्रकार 'उत्तराध्ययनसूत्र : एक परिशीलन' एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। जिस प्रकार से लेखक ने सरल, सुबोधगम्य भाषा शैली में उत्तराध्ययन की विषयवस्तु को एक नये कलेवर में अपने परिशीलन से गुम्फित कर प्रस्तुत किया है, उसके लिये वह बधाई के पात्र हैं। मैं प्रो. सुदर्शन लाल जैन के दीर्घजीवन की कामना करता हूँ ताकि इस प्रकार के कुछ और ग्रन्थ प्रकाश में आ सकें। डॉ. श्रीप्रकाश पाण्डेय संयुक्त निदेशक पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी-221005 पूजा का वैज्ञानिक अनुशीलन : एक अनुपम कृति जैन गृहस्थ के छ: आवश्यक कर्तव्य बतलाए गए हैं जिनमें 'जिनदेव-पूजा' सर्वप्रथम है। जिन-मन्दिर समो शरण (अर्हन्त भगवन्तों की दिव्यदेशना सभा स्थल) के प्रतिरूप हैं जहाँ पञ्चकल्याणकों से प्रतिष्ठित जिन-प्रतिमाओं के दर्शन होते हैं। ऐसी जिन-प्रतिमाओं का दर्शन और पूजन (भक्तिभाव निवेदन) प्रतिदिन प्रात: उठकर करणीय है। ऐसा करने से एक विशिष्ट ऊर्जा वीतराग प्रतिमा से उत्सर्जित होकर दर्शनार्थी/पूजार्थी के अन्तःकरण में वीतरागभाव जागृत करती है। पूर्वोपार्जित पापकर्मों का क्षय होता है तथा मोक्षमार्ग प्रशस्त होता है। प्रभूत पुण्यकर्मों का लाभ तथा अनायास बिना मांगे सांसारिक अभीष्ट फल का लाभ भी होता है। देवपूजा का अभीष्ट फल प्राप्त हो एतर्थ आचार्यप्रवर 108 श्री निर्भयसागर जी ने अनुपम कृति का सृजन किया है जिसका नाम है - 'पूजन का वैज्ञानिक अनुशीलन'। इसमें पूज्य कौन है? पूजक कौन है? पूजा क्या है ? पूजा का फल क्या है, देवदर्शन क्या है? यन्त्र-मन्त्र-वास्तु, होना बीजाक्षर आदि का वैज्ञानिक विवेचन किया गया है। इस ग्रन्थ को विषयानुसार नव अध्यायों में विभक्त किया गया है। अन्त में प्रयुक्त संदर्भ-ग्रन्थ-सूची भी दी गई है। सिका सुन्दर सम्पादन प्रो. (डॉ.) सुदर्शन लाल जैन ने किया है जो स्वयं जैनागमवेत्ता हैं। आपने इस ग्रन्थ को ग्रन्थों के संदर्भ देकर शोधग्रन्थ का रूप दे दिया। विस्तृत (17 पृष्ठीय) प्रस्तावना भी लिखी है जो विषय को सरल और संक्षेप विधि से स्पष्ट करती है। यह ग्रन्थ जैन पूजा विधि का सम्यक् ज्ञान प्राप्त करने के लिए अत्यन्त उपयोगी है। समस्त पारिभाषिक शब्दों, बीजाक्षरों तथा उनमें निहित वैज्ञानिकता को समझने के लिए उपादेय है। डॉ. मनोरमा जैन जैनदर्शनाचार्य, पी-एच.डी.,जैन नगर, भोपाल 446