________________ अपराजेय व्यक्तित्व के धनी : आचार्य कुन्दकुन्द (कुन्दकुन्दाचार्य की दृष्टि में निश्चय-व्यवहार नय का समन्वय करने वाला आलेख 'आचार्य कुन्दकुन्द के दर्शनों में निश्चय और व्यवहार नय' जो प्रो. सुदर्शन लाल जैन का है इसी ग्रन्थ में छपा है, द्रष्टव्य है) जिन-अध्यात्म के प्रतिष्ठापक आचार्य कुन्दकुन्द का स्थान दिगम्बर जैन-आचार्य परम्परा में सर्वोपरि है। दो हजार वर्ष पूर्व से आज तक लगातार दिगम्बर साधु अपने आपको कुन्दकुन्दाचार्य की परम्परा का कहलाने में गौरव का अनुभव करते आ रहे हैं। __ भगवान महावीर और गौतम गणधर के बाद आचार्य कुन्दकुन्द को समस्त दिगम्बर आचार्य परम्परा के प्रतिनिधि के रूप में स्मरण किया जाता रहा है। मङ्गलाचरण के रूप में प्रतिदिन बोले जाने वाला छन्द मूलत: इस प्रकार मङ्गलं भगवान् वीरो, मङ्गलं गौतमो गणी। मङ्गलं कुन्दकुन्दार्यो, जैनधर्मोऽस्तु मङ्गलम्।। दिगम्बर जिनमन्दिरों में विराजमान जगमग प्रत्येक जिनबिम्ब (जिन प्रतिमा या जिनमूर्ति) पर 'कुन्दकुन्दाम्नाये' उल्लेख पाया जाता है। परवर्ती ग्रन्थकारों ने आपको जिस श्रद्धा के साथ स्मरण किया है, उससे भी पता चलता है कि दिगम्बर परम्परा में आपका स्थान बेजोड़ है। आपकी महिमा बताने वाले शिलालेख भी उपलब्ध हैं। कतिपय महत्त्वपूर्ण शिलालेख इस प्रकार हैं - 'कुन्दपुष्प की प्रभा धारण करने वाली जिनकी कीर्ति द्वारा दिशायें विभूषित हुई हैं, जो चारणों के चारण ऋद्धिधारी महामुनियों के सुन्दर कर-कमलों के भ्रमर हैं और जिन पवित्रात्मा ने भरतक्षेत्र में श्रुत की प्रतिष्ठा की है, वे विभु कुन्दकुन्द इस पृथ्वी पर किसके द्वारा बन्ध नहीं हैं। यतीश्वर (श्री कुन्दकुन्द स्वामी) रजःस्थान पृथ्वी-तल को छोड़कर चार अङ्गुल ऊपर गमन करते थे, जिससे मैं समझता हूँ कि वे अन्तर व बाह्य रज से अत्यन्त अस्पृष्टता रखते थे (अर्थात् वे अन्तरङ्ग में रागादिमल से तथा बाह्य में धूल से अस्पष्ट थे)। उपलब्ध ऐतिहासिक लेखों, प्रशस्ति पत्रों, मूर्तिलेखों, परम्परागत जनश्रुतियों एवं परवर्ती लेखकों के उल्लेखों के आधार पर विद्वानों द्वारा आलोड़ित जो भी जानकारी आज उपलब्ध है, उसका सार इस प्रकार है - आज से लगभग दो हजार वर्ष पूर्व विक्रम की प्रथम शताब्दी में कोण्डकुन्दपुर में जन्मे कुन्दकुन्द अखिल भारतवर्षीय ख्याति के दिग्गज आचार्य थे। आपके माता-पिता कौन थे और उन्होंने जन्म के समय आपका क्या नाम रखा था? - यह तो ज्ञात नहीं, पर नन्दिसङ्घ में दीक्षित होने के कारण दीक्षित होते समय आपका नाम पद्मनन्दी रखा गया था। विक्रम संवत् 46 में आप नन्दिसङ्घ के आचार्य पद पर आसीन हुये और मुनि पद्मनन्दी से आचार्य पद्मनन्दी हो गये। अत्यधिक सम्मान के कारण नाम लेने में संकोच की वृत्ति भारतीय समाज की अपनी सांस्कृतिक विशेषता रही है। महापुरुषों के गाँव के नामों या उपनामों से सम्बोधित करने की वृत्ति भी इसी का परिणाम है। कौण्डकुन्दपुर के वासी होने से आपको भी कौण्डकुन्दपुर के आचार्य के अर्थ में कौण्डकुन्दाचार्य कहा जाने लगा, जो श्रुति-मधुरता की दृष्टि से कालान्तर में कुन्दकुन्दाचार्य हो गया। उक्त नामों के अतिरिक्त एलाचार्य, वक्रग्रीवाचार्य एवं गृद्धपिच्छाचार्य भी आपके नाम कहे जाते हैं। इस सन्दर्भ में विजयनगर के एक शिलालेख में एक श्लोक पाया जाता है, जो इसप्रकार है - आचार्यः कुन्दकुन्दाख्यो वक्रग्रीवो महामुनिः। एलाचार्यो गृद्धपिच्छ इति तन्नाम पञ्चधा।। उक्त सभी नामों में 'कुन्दकुन्दाचार्य' नाम ही सर्वाधिक प्रसिद्ध नाम है। इस युग के अन्तिम तीर्थङ्कर भगवान महावीर की अचेलक परम्परा में आचार्य कुन्दकुन्द का अवतरण उस समय हुआ, जब भगवान महावीर की अचेलक परम्परा को उन जैसे तलस्पर्शी अध्यात्मवेत्ता एवं प्रखर प्रशासक आचार्य 447