________________ उत्तराध्ययनसूत्र : एक परिशीलन की समीक्षा 'उत्तराध्ययनसूत्र : एक परिशीलन' जैन धर्म-दर्शन के महामनीषी तथा प्राकृत भाषा के मर्मज्ञ विद्वान् प्रोफेसर सुदर्शन लाल जैन द्वारा रचित एक पुस्तक है जिसमें लेखक ने उत्तराध्ययन सूत्र का विशेष अध्ययन कर तथा उस पर अपना विशेष अभिमत प्रदान कर कृति को और भी उत्कृष्ट बना दिया है। उत्तराध्ययनसूत्र की गणना जैन आगमों के अन्तर्गत मूलसूत्रों में की जाती है। दिगम्बर परम्परा में भी उत्तराध्ययन की गणना अङ्गबाह्य ग्रन्थों में की जाती है। यह माना जाता है कि भगवान् महावीर के अन्तिम उपदेश इसमें संग्रहीत हैं। अर्धमागधी प्राकृत भाषा में निबद्ध तथा छत्तीस अध्यायों में विभक्त यह ग्रन्थ पद्य और गद्य दोनों में मिश्रित रूप में प्राप्त होता है। उत्तराध्ययन के छत्तीस अध्याय इस प्रकार हैंविनयश्रुत, परीषह, चतुरङ्गीय, असंस्कृत, अकाममरण, क्षुल्लक निग्रन्थीय, एलय, कापिलीय, नमिप्रवज्या, द्रुमपत्रक, बहुश्रुत पूजा, हरिकेशीय, चित्तसम्भूतीय, इषुकारीय, सभिक्षु, ब्रह्मचर्य, समाधिस्थान, पापश्रमणीय, संजय, मृगापुत्रीय, महानिग्रन्थीय, समुद्रपालीय, रथनेमीय, केशिगौतमीय, समितीय, यज्ञीय, समाचारी, खलुंकीय, मोक्षमार्गगति, सम्यक्त्व, पराक्रम, तपोमार्ग, चरणविधि, प्रमादस्थानीय, कर्मप्रकृति, लेश्या, अनगार एवं. जीवाजीव-विभक्ति। इन सभी अध्ययनों में सामान्य रूप से साधु के आचार एवं तत्त्वज्ञान का सरल एवं सुबोध शैली में विवेचन किया गया है। इस ग्रन्थ की विषयवस्तु इतनी महत्त्वपूर्ण है कि इसकी तुलना वैदिक परम्परा के सर्वमान्य ग्रन्थ भगवद्गीता तथा बौद्ध परम्परा की जातक कथाओं के साथ की जाती है। प्रोफेसर सुदर्शन लाल जैन ने इस ग्रन्थ पर पार्श्वनाथ विद्यापीठ के शोधछात्र के रूप में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से पी-एच.डी. उपाधि प्राप्त की। सन् 1970 में प्रथम बार यह ग्रन्थ के रूप में प्रकाशित हुआ। इसकी लोकप्रियता और महत्ता के कारण इसे पुनः प्रकाशित करना पड़ा। इसकी लोकप्रियता के कारण ही बाद में प्रो. अरुण शान्तिलाल जोशी (व्याख्याता शामणदास कालेज, भावनगर, गुजरात) ने इसका गुजराती अनुवाद किया जो सन् 2001 में पार्श्वनाथ विद्यापीठ से प्रकाशित हुआ। इसके हिन्दी संस्करण की अत्यधिक मांग को देखते हुये प्राकृत भारती, जयपुर के सहयोग से 2012 में इसका पुन: प्रकाशन पार्श्वनाथ विद्यापीठ से किया गया। उत्तराध्ययनसूत्र पर अन्य जैन आगम ग्रन्थों की अपेक्षा विपुल व्याख्यात्मक सहित्य उपलब्ध है। शान्टियर, हर्मन याकोबी, एम. विन्टरनित्ज आदि पाश्चात्य विद्वानों ने इसके साहित्यिक, धार्मिक, दार्शनिक आदि पहलुओं के महत्त्व की ओर संकेत किया किन्तु इन विद्वानों ने उत्तराध्ययनसूत्र के अन्तरङ्ग विषय का सर्वांगीण समालोचनात्मक अध्ययन प्रस्तुत नहीं किया जो समालोचनात्मक अध्ययन की दृष्टि से अत्यन्त आवश्यक और समाजोपयोगी है। प्रोफेसर सुदर्शन लाल जैन ने इस अधूरे कार्य को पूरा किया और इसकी समालोचनात्मक व्याख्या कर इस ग्रन्थ की महत्ता को और भी बढ़ा दिया। प्रस्तुत प्रबन्ध में प्रास्ताविक सहित कुल आठ प्रकरण और चार परिशिष्ट हैं। प्रबन्ध के अन्त में सहायक ग्रन्थ-सूची, अनुक्रमणिका, तालिकायें एवं वृत्तचित्र दिये गये हैं। अन्तिम प्रकरण में प्रबन्ध का परिशीलनात्मक उपसंहार प्रस्तुत होने से ग्रन्थ का नाम 'उत्तराध्ययनसूत्र : एक परिशीलन' रखा गया। प्रस्तुत प्रबन्ध के प्रास्ताविक में जैन आगम साहित्य में उत्तराध्ययन का स्थान, विषय-परिचय, रचयिता एवं रचनाकाल, नामकरण का कारण, भाषा शैली और महत्त्व तथा टीका साहित्य के साथ उत्तराध्ययन के प्रकाशित विविध संस्करणों की सूची दी गयी है। विषय की दृष्टि से प्रथम प्रकरण में विश्व की भौगोलिक संरचना, द्रव्य-लक्षण विचार, षट् द्रव्य, लोक रचना, सृष्टि तत्त्व आदि का निरूपण किया गया है। द्वितीय प्रकरण में संसार की दुःखरूपता और उसके कारणों पर विचार करते हुये सुखदुःख की विषमता का कारण कर्म सिद्धान्त को मानकर उनके प्रमुख भेद-प्रभेदों तथा बन्धन-कारणों का वर्णन किया गया है। तृतीय प्रकरण में मुक्ति मार्ग अथवा त्रिरत्न का वर्णन किया गया है। जिस प्रकार किसी कार्य की सफलता के लिये, इच्छा, ज्ञान और प्रयत्न इन तीन बातों का संयोग आवश्यक होता है उसी प्रकार संसार के दु:खों से निवृत्ति हेतु विश्वास, ज्ञान और सदाचार का संयोग आवश्यक है जिन्हें क्रमश: सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र कहा गया है। चतुर्थ प्रकरण में साधुओं के आचार का वर्णन किया गया है जिसमें सामान्य साध्वाचार तथा विशेष साध्वाचार इन दो प्रकार के आचारों में सामान्य साध्वाचार जिसमें दीक्षा की उत्थानिका, बाह्य उपकरण (उपधि), महाव्रत, प्रवचन-मातायें, आवश्यक, सामाचारी, वसति या उपाश्रय तथा आहार आदि पर विचार किया गया है। 445