Book Title: Siddha Saraswat
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Abhinandan Granth Prakashan Samiti

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Page 464
________________ ऐसे कवि की नाट्यकृति की व्याख्या भी सरल कार्य नहीं था किन्तु डॉ. सुदर्शनलाल जैन ने अपने वैदृष्य के बल पर यह कार्य सुगम और सफल बनाया। एक शिक्षक के नाते उन्हें अपने विद्यार्थियों की माँग पता थी अत: व्याख्या करते समय उन्होंने विद्यार्थियों के हितों को ध्यान में रखा। डॉ. सुदर्शनलाल जैन ने कर्पूरमञ्जरी की व्याख्या से पूर्व इस कृति में 46 पृष्ठ की विस्तृत प्रस्तावना लिखी है जिसमें कथासार, राजा चन्द्रपाल, कर्पूरमञ्जरी, देवी (विभ्रमलेखा), भैरवानन्द (योगीश्वर), विदूषक (कपिञ्जल ब्राह्मण), विचक्षणा (दासी)आदि पात्रों के चरित्र चित्रण, कर्पूरमञ्जरी में सौन्दर्य और प्रेम विषयक दृष्टिकोण के अन्तर्गत प्रेम समीक्षा, सट्टक का स्वरूप, उद्भव और विकास, प्रकृति चित्रण,काव्य सौन्दर्य, भाषा, कृतिकार राजशेखर का परिचय, उनकी कृतियां तथा ग्रन्थ योजना पर वैदुष्यपूर्ण प्रकाश डाला है। इससे कृति का मूलभाव तथा कृतिकार का व्यक्तित्व पाठकों तथा विद्यार्थियों के सामने आ जाता है। डॉ. सुदर्शनलाल जैन ने कर्पूरमञ्जरी की व्याख्या का नामकरण अपनी सुयोग्य पत्नी 'मनोरमा' के नाम पर 'मनोरमा' नाम दिया है। जो 'यथा नाम तथा गुणः' की उक्ति को चरितार्थ करता है। आपने व्याख्या लिखकर कृति को सुपाच्य बनाया है। इससे आपके भाषा-ज्ञान का भी पता चलता है और वैदुष्य का भी। टिप्पणी के अंतर्गत विभिन्न विद्वानों के पारिभाषिक विचार, सूक्तियां, लक्षण ग्रन्थों के आधार पर लक्षण आदि तथा लोक प्रचलित धारणाओं के आधार पर संक्षिप्त कथाओं का अङ्कन या सूचना देकर विषय को बोधगम्य बनाया है। भाषागत विविध रूपों की चर्चा भी उपयोगी है। कवि राजशेखर कर्पूरमञ्जरी के सौन्दर्य की प्रशंसा करते हुए लिखते हैं कि - दूरे किज्जउ चंपअस्स कलिआ कज्ज हलिद्दीअ किं उत्तत्तेण अ कंचणेण गणणा का णाम जच्चेण वि। लावण्णस्य णवुगएंदुमहुरच्छाअस्स तिस्सा पुरो पच्चग्गेहि वि केसरस्य कुसुमक्केरेहि किं कारणं।। नवोदित चन्द्रमा की तरह मधुर कांतिवाले उसके लावण्य के समक्ष चम्पा की कली को दूर करो, हल्दी का भी क्या प्रयोजन? शुद्ध और तपाए हुए सोने की भी क्या गिनती ? ताजे केशर के फूलों के ढेर से भी क्या प्रयोजन ? इस पर टिप्पणी करते हुए डॉ. सुदर्शनलाल जैन ने लिखा है कि- चम्पा, हल्दी, तप्तसुवर्ण और ताजे केशर की अपेक्षा कर्पूरमञ्जरी का लावण्य अधिक चमकीला है। अतएव चम्पा आदि के उपमानत्व का निराकरण करने से यहाँ 'आक्षेप' अलंकार है। प्रतिषेधपुर:सरोक्तिराक्षेपः। उपमा अलंकार की ध्वनि होने से अलंकार से अलंकार ध्वनि भी है। 'उत्तत्तेण' के स्थान पर 'ओल्लोल्लाइ' (आर्द्रया) पाठ करने पर भी वही अर्थ निकलेगा क्योंकि सुवर्ण तपाये जाने पर आर्द्र (तरल) हो जाता है। इस तरह कवि राजशेखर ने कर्पूरमञ्जरी के माध्यम से जो भाव व्यक्त किया है उसकी रक्षा करते हुए डॉ. सुदर्शनलाल जैन द्वारा यह मनोरमा टीका लिखना कर्पूरमञ्जरी जैसे सट्टक को चर्चित बनाने की दृष्टि से उनका महत्त्वपूर्ण योगदान साहित्य जगत के लिए माना जायेगा; ऐसा मैं मानता है। व्याख्याकार डॉ. सुदर्शनलाल जैन इस श्रमसाध्य कार्य के लिए बधाई एवं साधुवाद के पात्र हैं। अभिमत -प्रोफेसर विश्वनाथ भट्टाचार्य, अध्यक्ष, संस्कृत विभाग,काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसीविद्वान् सम्पादक ने अद्यावधि उपलब्ध सभी विद्वानों की विचारधारा का मन्थन कर नवनीत के रूप में अपने विचारों को प्रस्तुत किया है। प्राकृत भाषा का विशेष अध्ययन करने वाले डॉ. सुदर्शनलाल जैन ने इस सट्टक की जिस प्रकार छानबीन की है उसमें कवि और कविकृति के बारे में कोई भी प्रश्न अमीमांसित नहीं है। डॉ. सुरेन्द्रकुमार जैन 'भारती' महामन्त्री, श्री अ.भा.दि.जैन विद्वत्परिषद् बुरहानपुर (म.प्र.) 444

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