Book Title: Siddha Saraswat
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Abhinandan Granth Prakashan Samiti

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Page 468
________________ की आवश्यकता सर्वाधिक थी। यह जैन परम्परा के विभाजन का आरम्भकाल था। इस समय बरती गई किसी भी प्रकार की शिथिलता भगवान महावीर के मूलमार्ग के लिए घातक सिद्ध हो सकती थी। भगवान महावीर की मूल परम्परा के सर्वसामान्य सर्वश्रेष्ठ आचार्य होने के नाते आचार्य कुन्दकुन्द के समक्ष सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण दो उत्तरदायित्व थे। एक तो द्वितीय श्रुतस्कन्ध रूप परमागम (अध्यात्म शास्त्र) को लिखित रूप से व्यवस्थित करना और दूसरा शिथिलाचार के विरुद्ध सशक्त आन्दोलन चलाना। दोनों ही उत्तरदायित्वों को उन्होंने बखूबी निभाया। प्रथम श्रुतस्कन्धरूप आगम की रचना धरसेनाचार्य के शिष्य पुष्पदन्त और भूतबली द्वारा हो रही थी। द्वितीय श्रुतस्कन्धरूप परमागम का क्षेत्र खाली था। मुक्तिमार्ग का मूल तो परमागम ही है। अतः उसका व्यवस्थित होना आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य था; जिसे आचार्य कुन्दकुन्द जैसे प्रखर आचार्य ही कर सकते थे। जिनागम में दो प्रकार से मूलनय बताये गये हैं - निश्चय-व्यवहार और द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिक। समयसार व नियमसार में निश्चय-व्यवहार की मुख्यता से कथन करके उन्होंने अध्यात्म और वस्तुस्वरूप - दोनों को बहुत ही अच्छी तरह स्पष्ट कर दिया है। उनके सभी महान् ग्रन्थ आगामी ग्रन्थकारों को आज तक आदर्श रहे हैं, मार्गदर्शक रहे हैं तथा आगे भी रहेंगे। अष्टपाहुड़ में उनके प्रशासक रूप के दर्शन होते हैं। इसमें उन्होंने शिथिलाचार के विरुद्ध कठोर भाषा में इस परम सत्य का उद्घाटन किया है, जिसके जाने बिना साधकों के भटक जाने के अवसर अधिक थे। आध्यात्मिक शान्ति और सामाजिक क्रान्ति का जैसा अद्भुत सङ्गम इस अपराजेय व्यक्तित्व में देखने को मिलता है, वैसा अन्यत्र असम्भव नहीं तो दुर्लभ अवश्य है। आत्मा के प्रति अत्यन्त सजग आत्मोन्मुखी वृत्ति एवं शिथिलाचार के विरुद्ध इतना उग्र सङ्घर्ष आचार्य कुन्दकुन्द जैसे समर्थ आचार्य के ही वश की बात थी। आत्मोन्मुखी वृत्ति के नाम पर विकृतियों की ओर से आँख मूंद लेने वाले पलायनवादी एवं विकृतियों के विरुद्ध जेहाद छेड़ने के बहाने जगत प्रपञ्चों में उलझ जाने वाले परमाध्यात्म से पराङ्मुख पुरुष तो पग-पग पर मिल जावेंगे, पर आत्माराधना एवं लोककल्याण में समुचित समन्वय स्थापित कर, सुविचारित सन्मार्ग पर स्वयं चलनेवाले एवं जगत को ले जानेवाले समर्थ पुरुष विरले ही होते हैं। आचार्य कुन्दकुन्द ऐसे ही समर्थ आचार्य थे, जो स्वयं तो सन्मार्ग पर चले ही, साथ ही लोक को भी मङ्गलमय मार्ग पर ले चले। उनके द्वारा प्रशस्त किया वह आध्यात्मिक सन्मार्ग आज भी अध्यात्मप्रेमियों का आधार है। आचार्य कुन्दकुन्द के अध्यात्म एवं आचरण सम्बन्धी निर्देशों की आवश्यकता जितनी आज है, उतनी कुन्दकुन्द के समय में न रही होगी, क्योंकि अध्यात्म विमुखता और शिथिलाचार जितना आज देखने में आ रहा है, उतना कुन्दकुन्द के समय में सम्भवतः नहीं था और किसी भी युग में नहीं रहा होगा। अत: आज आध्यात्मिक जागृति और साधु व श्रावकों के निर्मल आचरण के लिए कुन्दकुन्द के ग्रन्थों का अध्ययन गहराई से किया जाना उपयोगी ही नहीं, अत्यन्त आवश्यक है। आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों का नियमित स्वाध्याय एवं विधिवत् पठन-पाठन न केवल आत्महित के लिए आवश्यक है, अपितु सामाजिक शान्ति और श्रमण संस्कृति की सुरक्षा के लिए भी अत्यन्त आवश्यक है, अन्यथा कुछ श्रावकों में समागत असदाचार और कुछ श्रमणों में समागत शिथिलाचार सामाजिक शान्ति को तो भङ्ग कर ही रहे हैं, श्रमण संस्कृति की दिगम्बर धारा भी छिन्न-भिन्न होती जा रही है। श्रद्धा और चारित्र के इस संकटकाल में आचार्य कुन्दकुन्द के पञ्च परमागमों में प्रवाहित ज्ञानगङ्गा में आकण्ठ निमज्जन (डुबकी लगाना) ही परम शरण है। यदि हम जिन-अध्यात्म की ज्योति जलाये रखना चाहते हैं, श्रावकों को सदाचारी बनाये रखना चाहते हैं, सन्तों को शिथिलाचार से बचाये रखना चाहते हैं, तो हमें कुन्दकुन्द को जन-जन तक पहुँचाना ही होगा, केवल स्वाध्याय ही नहीं, उसे आचरण में भी लाना होगा। - डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल महामंत्री, टोडरमल स्मारक, जयपुर 448

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