Book Title: Siddha Saraswat
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Abhinandan Granth Prakashan Samiti

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Page 469
________________ जिन-प्रतिमा पर सूरिमन्त्र क्यों? जिन-प्रतिमा का महत्त्व साक्षात् तीर्थङ्कर और कैवली भगवन्तों के अभाव के बाद उनकी सान्निध्यता की पूर्ति के लिये जिनबिम्ब की रचना का उपदेश हमारे परम्पराचार्यों ने किया है। तीर्थङ्कर और केवली भगवान केवली अवस्था में स्वात्मलीन आनन्द में रहते हुये उनकी वीतराग मुस्कान और वीतराग मुद्रा कैसी थी? तद्प प्रतिमा का निर्माण करना और उसकी स्थापना नय-निक्षेप से मन्त्रोच्चार पूर्वक संस्कार कर गुणों का रोपण करना, पश्चात् प्रत्यक्ष आराध्य के रूप में स्थापित कर प्रतिमा को प्रत्यक्ष तीर्थङ्कर मानकर आराधना करने का विधान पूर्व परम्पराचार्यों द्वारा प्रतिपादित किया गया। मन्त्र एक ऐसी शक्ति है जो जीव और अजीव द्रव्य को प्रभावित करती है। इसीलिए तीर्थङ्कर भगवान के द्वारा दिव्य ध्वनि रूप द्वादशांग वाणी के दशवें अङ्ग में विद्यानुवाद का भी उपदेश है। जिसमें मन्त्र रूप बीजाक्षरों का निर्माण, मन्त्र-रचना, मन्त्र-साधन विधि आदि निरूपित किया गया है। मन्त्र के द्वारा इच्छित कार्यों की साकारता प्राप्त होने से व्यक्ति की मन्त्र के प्रति निरन्तर महत्ता और आदर श्रद्धा बढ़ती गयी। आत्म-कल्याण में भी मन्त्र एक ऐसा साधन है जो साधक को साध्य की ओर ले जाता है तथा जो जीव के परिणामों में विशुद्धि, निर्मलता, एकाग्रता और कर्म-निर्जरा में सहकारी बनता है। जैन-प्रतिमा की निर्माण विधि प्रतिमा विज्ञान में प्रतिमा निर्माण के अनेक रूपों का प्रतिपादन है। उनके माप और आकृतियों में भी विभिन्नतायें हैं, जैसे आर्त-रूप, रौद्र-रूप, वीर-रूप, हास्य-रूप, सौम्य वीतराग रूप ध्यान मुद्रा। इनमें जैन-प्रतिमा विज्ञान का पृथक एवं उसके माप के निर्माण का पृथक् स्वरूप है। रूप वीतराग हो, ध्यान मुद्रा हो, वीतराग मुस्कान हो (वीतराग मुस्कान की एक विलक्षणता निर्मित है) आचार्यों ने जैन-प्रतिमा के विषय में लिखा है- सरल, लम्बा, सुंदर संस्थान युक्त तरुण अवस्थाधारी नग्न यथाजात मुद्राधारी श्री वत्स लक्षण भूषित हृदयवाला जानुपर्यंत लम्बी भुजा सहित 108 भाग प्रमाण जिनेन्द्र बिम्ब, काँख मुख दाड़ी के केश रहित बनाने का उल्लेख है। श्रेष्ठ धातु या पाषाण की प्रतिमा को बनाने का उल्लेख हैं। जिस प्रमाण में जिन बिम्ब का निर्माण करना हो उस प्रमाण कागज में बीच से मोड़कर अर्द्ध रेखा करें। उसमें 108 भाग प्रमाण रेखाएँ करें। उसमें 2 भाग प्रमाण मुख, 4 भाग प्रमाण ग्रीवा, उससे 12 भाग प्रमाण हृदय, हृदय से नाभि तक 12 भाग प्रमाण, नाभि से लिङ्ग के मूल भाग पर्यन्त 12 भाग प्रमाण, लिङ्ग के मूल भाग से गोड़ा (घुटना) तक 24 भाग प्रमाण जांघ करें। जांघ के अंत में 4 भाग प्रमाण गोंडा करे, गोंडा से टिकून्या 24 भाग प्रमाण पीडी बनाएँ, टिकून्या (पंजा की गाँठ) से पादमूल पर्यन्त 4 भाग पर्यन्त एड़ी करें। इस प्रकार 108 भागों में सम्पूर्ण शरीर की रचना 9 विभागों में बनायें। यह विभाग मस्तक के केशों से लेकर चरणतल पर्यन्त हैं। मस्तक के ऊपर गोलाई केश से युक्त शोभनीक करें। चरणतल के नीचे आसन रूप चौकी बनाना चाहिये। सामान्य जीव तथा जिन प्रतिमा का संस्कार और उसका प्रभाव जिनेन्द्र -प्रतिमा को मन्त्रोच्चार पूर्वक साविधि संस्कार करने से अचेतन द्रव्य भी इतना प्रभावी और सातिशय बन जाता है कि जिसकी सान्निध्यता से जीव द्रव्य अपना उपकार करने में पूर्ण सक्षम हो जाता है। प्रतिमा दर्शन से स्वात्मपरिणामों में विशुद्धि एवं संसार की असारता का बोध जीव को होता है, इसी हेतु की साकारता के लिये तीर्थङ्कर के काल में भी पूर्ववर्ती तीर्थङ्करों की प्रतिकृति रूप प्रतिमायें निर्मित कर मन्त्रोच्चार पूर्वक उनका संस्कार किया जाता रहा है। वास्तु सर्वेक्षण से प्राप्त प्रतीक इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। प्रायः देखा गया है कि व्यक्ति के जीवन की शुभ और अशुभ प्रवृत्तियाँ उसके संस्कारों के अधीन हैं। जिनमें से कुछ वह पूर्वभव से अपने साथ लाता है और कुछ इसी भव में सङ्गति और शिक्षा आदि के प्रभाव से उत्पन्न करता है। इसीलिये गर्भ में आने के पूर्व से ही बालक में विशुद्धि संस्कार उत्पन्न करने के लिए संस्कार क्रिया का भी विधान बताया गया है। गर्भावतरण से लेकर निर्वाण-पर्यन्त यथावसर श्रावक को जिनेन्द्र पूजन एवं मन्त्र संस्कार सहित 53 प्रकार की क्रियाओं का वर्णन शास्त्रों में प्रतिपादित है। इन क्रियाओं की सम्पन्नता से बालक के संस्कार उत्तरोत्तर विशुद्ध होते हुए अर्हत दशा तक पहुँचकर निर्वाण-सम्पत्ति प्राप्त करने की पात्रता पा लेता है। सिद्धिविनश्चय ग्रन्थ के प्रथम अध्याय में 449

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