Book Title: Siddha Saraswat
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Abhinandan Granth Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 462
________________ 4. प्रवेशक और विष्कम्भक का अभाव। 'सट्टक' के उक्त लक्षण 'कर्पूरमञ्जरी' में विद्यमान हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि 'सट्टक' के स्वरूप-निर्धारकों ने 'कर्पूरमञ्जरी' को आधार बनाकर ही यह स्वरूप निर्धारण किया है क्योंकि 'कर्पूरमञ्जरी' से पूर्व अन्य 'सट्टक' उपलब्ध नहीं था। बाद में 'सट्टक' रचयिताओं ने 'कर्पूरमञ्जरी' का ही अनुकरण प्रायः किया है। कर्पूरमञ्जरी की कथा महाकवि राजशेखरकृत 'कर्पूरमञ्जरी' में चार जवनिका हैं। इसका कथासार इस प्रकार है - प्रथम जवनिकान्तर - राजा चन्द्रपाल, देवी विभ्रमलेखा, विदूषक और परिजनवर्ग रङ्गमंच पर आते हैं। राजा और देवी वसन्त ऋतु की शोभा का वर्णन करते हुए एक दूसरे को बधाई देते हैं। वैतालिक भी राजा और देवी को बधाई देते हैं। विदूषक भी अपने को विज्ञ बतलाते हुए कहता है-'तुम सबमें मैं ही एक 'कालाक्षरिक (मूर्ख या विद्वान्) हूँ।' इस पर विचक्षणा व्यंग्य करती है। उन दोनों में काफी कहा सुनी होती है। विदूषक के काव्य कौशल की अपेक्षा विचक्षणा के काव्य कौशल की जब प्रशंसा होती है तो विदूषक अप्रसन्न होकर चला जाता है परन्तु थोड़ी देर बाद योगीश्वर भैरवानन्द के साथ पुनः प्रवेश करता है। योगीश्वर अपनी शक्ति का प्रदर्शन करते हुए विदूषक के परामर्श से विदर्भ नगर की अद्भुत सुन्दरी राजकुमारी कर्पूरमञ्जरी को स्नानावस्था में सबके समक्ष योगबल से उपस्थित करता है। राजा उसके अनुपम सौन्दर्य पर मुग्ध हो जाता है। कर्पूरमञ्जरी के परिचय से जब पता लगता है कि यह देवी विभ्रमलेखा की मौसी शशिप्रभा और मौसा वल्लभराज की पुत्री है तो देवी मौसेरी बहिन समझकर बहुत प्रसन्न होती है। देवी के अनुरोध पर योगीश्वर कर्पूरमञ्जरी को देवी के पास रहने के लिए कुछ दिनों को छोड़ देता है। साज-सज्जा करने हेतु देवी उसे अन्तःपुर में ले जाती है। तभी वैतालिक-गण से संध्याकाल की सूचना पाकर सभी संध्यावन्दना हेतु चले जाते हैं। द्वितीय जवनिकान्तर- राजा और प्रतिहारी का प्रवेश होता है राजा कर्पूरमञ्जरी की याद में विह्वल होकर निरंतर उसके रूपसौन्दर्य का स्मरण करता है। प्रतिहारी राजा का ध्यान हटाना चाहता है परन्तु असफल रहता है। तभी विदूषक और विचक्षणा एक साथ उपस्थित होते हैं। उन दोनों में दोस्ती हो चुकी है। विचक्षणा केतकी दल पर लिखा कर्पूरमञ्जरी का प्रेम-पत्र राजा को देती है। स्वयं विचक्षणा भी राजा के वियोग से दीनहीना कर्पूरमञ्जरी की विरहदशा का वर्णन करती है। इसी प्रसङ्ग में विदूषक भी राजा के विरह सन्ताप का उद्घाटन करता है। पश्चात् राजा के द्वारा यह पूछने पर कि देवी ने कर्पूरमञ्जरी को अन्त:पुर में ले जाकर किस प्रकार अलंकृत किया ? विचक्षणा उसके अङ्ग-प्रत्यंग के श्रृंगार का वर्णन करती है। विदूषक भी सर्वालंकारों से अलंकत उसके सर्वांग का वर्णन करता है परन्तु राजा उसके स्नात सौन्दर्य के ध्यान में ही डूबा रहता है। विदूषक राजा का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट करते हुए कहता है-'मैंने उसे सर्वालंकारों से अलंकृत बतलाया है और तुम उसके स्नातसौन्दर्य में ही मस्त हो। अलंकारों से अलंकृत रूप की ओर ध्यान दो।' राजा इस बात पर कहता है कि स्वाभाविक सौन्दर्य ही वास्तविक सौन्दर्य है। साज सज्जा से वह सौन्दर्य ढक जाता है। क्या द्राक्षारस को शर्करा से मीठा बनाया जाता है? विचक्षणा राजा का पक्ष लेती है। विचक्षणा कर्पूरमञ्जरी की विरहदशा की ओर पुनः संकेत करती है तथा विदूषक से समझकर शेष कार्य पूरा करने का आग्रह करती है। विदूषक राजा को शेष कार्य बतलाते हुए कहता है-'आज हिन्दोलन चतुर्थी के दिन महारानी गौरीपूजा के बाद कर्पूरमञ्जरी को झूला में झुलायेंगी। उस समय आप मरकतकुंज में बैठकर कर्पूरमञ्जरी को झूलती हुई देखेंगे। पश्चात् राजा और विदूषक दोनों कटलीगृह में स्थित मरकतकंज से कर्परमञ्जरी को झूलते हुए देखते हैं। राजा पुनः विह्वल हो जाता है। विदूषक शिशिरोपचार सामग्री लेने जाता है। रास्ते में शिशिरोपचार सामग्री हाथ में लिए हुए विचक्षणा से मुलाकात होती है। वार्तालाप से दोनों को एक दूसरे के दर्शन तथा विरहसन्ताप का पता लगता है। राजा और कर्पूरमञ्जरी के विरह सन्ताप के निवारण का कारण ज्ञात होने पर शिशिरोपचार सामग्री को फेंक दिया जाता है। योजनानुसार राजा मरकतकुंज से तमाल वृक्ष की आड़ से देवी के द्वारा आदिष्ट कर्पूरमञ्जरी को कुरवक, तिलक और अशोक वृक्षों का आलिङ्गनादि के द्वारा दोहद कर्म करते हुए सानुराग देखता है। पश्चात् संध्याकाल हो जाने पर सभी लोग चले जाते हैं। तृतीय जवनिकान्तर- राजा और विदूषक का प्रवेश होता है। राजा कर्पूरमञ्जरी के रूप का चिन्तन कर रहा है। विदूषक के पूछने पर राजा स्वप्न में कर्पूरमञ्जरी के मिलन का उद्घाटन करता है। इस पर विदूषक राजा का ध्यान वहाँ से हटाने के लिए कल्पित प्रतिस्वप्न का वर्णन करता है। विदूषक स्वप्न में देखता है कि बह गङ्गा जी की धारा में सो रहा है और मेघों ने उसे जल से साथ निगल लिया है; फिर मेघ के गर्भ में स्थित हुआ ताम्रपर्णी नदी के सङ्गम स्थल समुद्र के ऊपर पहुँचता 442

Loading...

Page Navigation
1 ... 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490