________________ रत्नों की वृष्टि करने लगा जिससे वहाँ के राजप्रसाद अत्यन्त शोभायमान हुए। अनन्तर चैत्रमास के कृष्ण पक्ष की पञ्चमी तिथि को श्रवण नक्षत्र में रानी पद्मावती ने मुनिसुव्रत पुत्र को उत्पन्न किया। जिनेन्द्र मुनिसुव्रत के जन्म के समय नाना प्रकारक अलौकिक प्राकृतिक दृश्यों एवं मङ्गल कार्यों के होने का सुन्दर चित्रण महाकाव्य में प्राप्त होता है। उनके जन्म के प्रभाव से भवनवासी देवों के घरों में शंखनाद, वनवासी देवों के घरों में भेरीनाद, ज्योतिष्क देवों के घरों में सिंहनाद व कल्पवासी देवों के यहाँ घण्टानाद अपने आप होने लगा। आकाश से रत्नवृष्टि एवं पुष्प वृष्टि होने लगी, पृथ्वी सस्यश्यामला हो उठी, अप्सराएँ नृत्य एवं गान करने लगीं। देवों, दिक्पालों, गन्धर्वो से युक्त इन्द्र ने अपनी चतुरङ्गिणी सेना के साथ शची सहित जिनेन्द्र के दर्शनार्थ प्रस्थान किया।" इन्द्राणी ने माता पद्मावती के पास मायावी बालक को रखकर उस बालक को इन्द्र को सौंप दिया। इन्द्र ने जिनेन्द्र के चरणों में प्रणाम कर उस नवजात को अपने हाथों में लेकर सम्मानपूर्वक ऐरावत के कन्धे पर बिठाया। ईशानेन्द्र ने उन पर छत्र लगाया। वे आकाश मार्ग से पाण्डुकवन लेकर गए। वहाँ देवताओं ने जिनेन्द्र का समारोह पूर्वक जन्माभिषेक किया। तदनन्तर देवेन्द्र ने जिनेन्द्र को उनके माता-पिता के पास पहुँचाकर उनसे सब समाचार निवेदित कर दिया। तत्पश्चात् उनके जातकर्मादि संस्कार सम्पन्न होने पर इन्द्र ने ये जिनेश्वर समस्त मुनियों को सुव्रती बनायेंगे एवं स्वयं भी सुव्रती बनेंगे, ऐसा विचारकर इनका मुनिसुव्रत यह नाम रखा। जिनेन्द्र मुनिसुव्रत का यह अलौकिक प्रभाव था कि उन्होंने माता के स्तनपान की इच्छा नहीं की। स्वयं उनके हाथ के अंगुष्ट में क्षुधा तृप्ति के लिए अमृत (अमृत-तुल्य दुग्ध) था।' जिनेन्द्र स्वामी का 7500 वर्ष का कुमार काल रहा। उनके शरीर में सदा नि:स्वेदिता, निर्मलता, श्वेतरुधिरता, समाकृति, वज्रवृषभनाराच-संहनन तथा एण नामक मृग की नाभि में विद्यमान कस्तूरी की सुगंध को तिरस्कृत कररने की सुगन्धिमत्ता थी।" वे कमल, शंख, मत्स्य और श्रीवत्स आदि एक सौ आठ उत्तम लक्षणों तथा मसूरिकादि नौ सौ उत्तम व्यञ्जनों (लक्षणों ) से सम्पन्न थे। इस तरह राजकुमार मुनिसुव्रत स्वाभाविक अतिशयों से युक्त थे। इनकी आयु तीस हजार वर्ष थी। बीस धनुष प्रमाण ऊँचाई थी। विष, अग्नि, शस्त्रादि के विघात से दूर थे। वात, पित्त, कफ जन्य व्याधियों से रहित थे तथा विकसित अलसी के पुष्प के समान वर्ण वाले थे। युवावस्था प्राप्त होने पर पिता ने इनका विवाह एवं यौवराज्याभिषेक किया। इनके शासनकाल में सर्वत्र सुख शान्ति थी। राज्य सिंहासन पर रहते हुए उन्होंने दस हाजर पाँच सौ वर्षों तक शासन किया। तदनन्तर जैन मुनि के मुख से गजवृत्तान्त सुनकर इनकी वैराग्य भावना प्रबल हो गई। इन्होंने अपने पुत्र विजय को राज्यभार सौंप दिया। माता-पिता, बन्धुवर्ग एवं अमात्यादिकों से निवेदन करके गृह-त्यागार्थ उन्होंने अपराजिता नामक पालकी पर आरूढ होकर नीलवन में प्रवेश किया। अन्तरङ्ग एवं बहिरङ्ग समस्त परिग्रहों का त्याग कर पद्मासन में स्थित रहकर वे मन्त्र जाप करने लगे। तदनन्तर केशलुञ्चन कर वैशाख कृष्णदशमी को चन्द्रयुक्त श्रवण नक्षत्र में उन्होंने मुनिदीक्षा ग्रहण की। मुनि सुव्रतस्वामी ने पूर्णचारित्र, शील तथा संयम के धारक होकर समस्त सिद्धियों को प्राप्त कर लिया। वे उग्र तपस्या करने लगे। सहस्र मुनियों से युक्त वे मुनिसुव्रतनाथ उसी प्रकार सुशोभित हए जैसे हजार-नेत्रों से इन्द्र, हजार किरणों से सूर्य, हजार पत्रों से कमल, हजार आरों से चक्ररत्न, हजार फणों से शेषनाग तथा हजार यक्षों से निधि शोभित हैं। इसके बाद 'राजगृह' नामक राजधानी में 'वृषभसेन' नामक राजा ने श्रद्धा तथा भक्ति के द्वारा मुनिसुव्रत स्वामी को पारणा (आहार) कराई। पारणा के समय पाँच आश्चर्य हुए। 1. रत्नवृष्टि, 2. पुष्पवृष्टि, 3. देवदुन्दुभि, 4. प्रशंसा ध्वनि, 5. सुगन्धित शीतल मन्द गन्ध ध्वनि। तपश्चरण एवं साधना के इसी क्रम में मुनिसुव्रतनाथ ने शुद्धात्मतत्त्व पर्याय वाला पापविनाशक शुक्ल ध्यान लगाया। इसमें उन्होंने मोहनीय कर्म की सात प्रकृतियों क्रोध, मान, माया, लोभ, मिथ्यात्व, सम्यक्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व इन तीन कर्मप्रकृतियों का क्षय कर क्रमश: स्त्यानत्रय, तेरह नामकर्म तथा अवशिष्ट इक्कीस मोहनीय कर्म की प्रकृतियों को नष्ट करते हुए क्षीणकाय नामक बारहवें गुणस्थान में ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय की सोलह कर्मकृतियों को भस्म किया। उनके योगखड्ग से समस्त घातिया कर्म नष्ट हो गये। इस प्रकार उन तीर्थङ्कर ने वैशाख कृष्ण दशमी को श्रवण नक्षत्र में अपराह्न वेला में कर्मक्षय से उत्पन्न नवलब्धियों सम्यक्त्व, दर्शन, ज्ञान, चारित्र, दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य, दस अतिशयों तथा आकाश में पाँच हजार धनुषप्रमाण उन्नत स्थान एक साथ प्राप्त किया। उनकी समवसरण सभा में अद्भुत दैवी आभा थी। अन्ततः सम्मेदाचल पर तीर्थङ्कर मुनिसुव्रतनाथ जी का सोल्लास मोक्ष 435