________________ शिक्षा दर्शन को गहराई से समझने में सहायक एवं उपयोगी है। ग्रन्थ में आगत पारिभाषिक शब्दों की हिन्दी में व्याख्या भी डॉ. जैन ने यथा स्थान प्रस्तुत कर दी है। सम्पादन तथा अनुवाद कार्य प्रशंसनीय है। भूमिका में दिया गया जैन संस्कृत-काव्य का इतिहास बहुत उपयोगी प्रो. सत्यदेव कौशिक पूर्व संस्कृत विभागाध्यक्ष, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, अलीगढ़ साहित्य-समाराधना का निस्यन्दमुनिसुव्रतकाव्य बीसवें जैन तीर्थङ्कर मुनिसुव्रतस्वामी के जीवन का चित्रण करने वाले इस महाकाव्य को पुनः प्रकाशन में लाने का श्रेय जैन दर्शन एवं साहित्य के गहन अध्येता श्रद्धेय गुरुवर प्रो. सुदर्शनलाल जैन, पूर्व अध्यक्ष, संस्कृत विभाग एवं पूर्व कला सङ्कायाध्यक्ष, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी को है। एक बार प्रो. जैन अपने चचेरे मामा श्री सिंघई टोडरमल जैन जी से मिलने उनके घर गये। उन्होंने अपने पिता के पास संरक्षित जैन सिद्धान्त भवन, आरा से 1929 ई. में प्रकाशित इस मुनिसुव्रत महाकाव्य की एक प्रति दिखलाकर उसे पुनः छपवाने की इच्छा प्रकट की। प्रो. जैन के विद्यानुराग एवं जैनधर्म के प्रति श्रद्धा भाव ने उन्हें इस रचना को गहनता से देखने हेतु प्रवृत्त किया। काव्यग्रन्थ की जीर्णता तथा भाषागत अशुद्धियों को देखकर उसे शुद्ध भाषा में सम्यक् रूप में सम्पादित करने के तथा हिन्दी अनुवाद के दायित्व को स्वीकृति दे दी। जिनवाणी में प्रगाढ आस्था रखने वाले श्रीटोडरमल जी ने ग्रन्थ के प्रकाशन में आने वाले आर्थिक व्यय का बोझ सहर्ष उठाने हेतु सम्मति प्रदान की। इस प्रकार जुलाई 1997 में यह ग्रन्थ पुनर्मुद्रित होकर विस्तृत भूमिका तथा स्वोपज्ञ 'सुखबोधा' संस्कृत टीका एवं हिन्दी भाषानुवाद के साथ नवीनरीत्या सुसज्जित होकर सामने आया। मुनिसुव्रत महाकाव्य के सम्पादन में प्रो. सुदर्शनलाल जैन जी ने विस्तृत भूमिका भाग में जैन संस्कृत काव्य साहित्य का सारगर्भित विवेचन प्रस्तुत किया है। यह विवेचन विशाल जैन संस्कृत वाङ्मय का संक्षिप्त में बहुत प्रामाणिक एवं स्पष्ट विशेषण करने वाला है, जिससे पाठक सहजरूप में अल्प समय में प्रमुख संस्कृत जैन काव्यों, काव्यप्रभेदों, काव्यकारों एवं काव्य के वर्ण्य विषय से सुपरिचित हो जाता है। स्वयं जैनमतानुयायी होने पर भी आचार्यप्रवर का यह विवेचन अपने पन्थ के प्रति विशेष आग्रह का प्रदर्शन नहीं करता। उन्होंने तटस्थ समालेचक की दृष्टि से यह भूमिका भाग बखूबी लिखा है। उन्होंने जैन संस्कृत काव्यों की विशेषताओं का परिगणन कराते हुए अनेक जैन पौराणिक, ऐतिहासिक, शास्त्रीय महाकाव्यों, सन्देश काव्यों, लघुकाव्यों, गीतिकाव्यों, समस्यापूर्ति काव्यों, सुभाषित काव्यों, गद्यकाव्यों, कथाकाव्यों, चम्पूकाव्यों एवं दृश्य काव्यों की रचना एवं रचनाकार के समय एवं नाम निर्देशपूर्वक विवरण उपस्थित किया है। आपने विवरण को अधिक युक्ति संगत बनाने हेतु कतिपय प्रमुख जैन संस्कृतकाव्यों एवं काव्यकारों का अलग से विवरण प्रस्तुत किया है। यह समग्र लेखन आचार्य सुदर्शन लाल जैन की समालोचकीय एवं सम्पादकीय प्रतिभा का सुन्दर निदर्शन है। उद्देश्य और कथानक - दस सर्गों में निबद्ध इस महाकाव्य में बीसवें तीर्थंकर मुनिसुव्रत जी के जन्मकल्याणक से लेकर मोक्ष कल्याणक तक की कथा बहुत सुन्दर ढंग से निबद्ध है। तीर्थकर मुनिसुव्रत इस महाकाव्य के नायक हैं। इस महाकाव्य के प्रणयन का उद्देश्य स्वयं कवि अर्हद्दास ने स्पष्ट किया है - तीर्थङ्कर स्वामी के प्रति भक्तिभाव, इसका उल्लेख उनके इन दो शोकों से स्वतः हो जाता है - सरस्वतीकल्पलतां स को वा संवर्धयिष्यन् जिनपारिजातम्। विमुच्य काञ्जलीरतरूपमेषु व्यारोपयेत् प्राकृतनायकेषु।। गणाधिपस्यैव गणेयमेतत् भवामि चोद्यन्भगवच्चरित्रे।। भक्तीरितो नन्वगचालनेऽपि शक्तो न लोके ग्रहिलो न लोकः।। अर्थात् सरस्वती रूपी कल्पलता के संवर्धन हेतु भला कौन विद्वान् जिनेन्द्र रूप कल्पवृक्ष को छोड़कर विषवृक्ष 433