________________ मुनिसुव्रतकाव्य : एक समीक्षा ___'मुनिसुव्रतकाव्य' में बीसवें तीर्थकर भगवान् मुनिसुव्रतनाथ का जीवन-दर्शन चित्रित है। इसके प्रणेता महाकवि श्री अर्हद्दास हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ-रत्न प्रथम बार जैन सिद्धान्त भवन आरा (बिहार) से 1999 ई. में स्वोपज्ञ 'सुखबोधा' संस्कृत टीका सहित प्रकाशित हुआ था। अति जीर्ण अवस्था में इसकी प्रति श्री सिङ्कई टोडरमल जैन के संग्रह में सुरक्षित थी। श्री सिङ्घई के अनुरोध पर डॉ. सुदर्शन लाल जैन ने उन्हीं के द्वारा प्रदत्त जीर्ण मुद्रित प्रति के आधार पर प्रस्तुत ग्रन्थ की स्वोपज्ञ- 'सुखबोधा' संस्कृत टीका सहित सम्पादन किया है। इसका प्रकाशन स्वयं श्री सिङ्घई ने स्वस्तिक लाइम इन्डस्ट्रीज, शिवधाम, कटनी, मध्य प्रदेश से 1997 ई. में किया है। डॉ. सुदर्शन लाल जैन ने भूमिका में समीक्षात्मक अध्ययन भी प्रस्तुत किया है और अन्त में शोकों की अनुक्रमणिका प्रस्तुत की है। इसके अतिरिक्त उन्होंने हिन्दी अनुवाद भी प्रस्तुत किया है। प्रस्तुत ग्रन्थ पर उपलब्ध स्वोपज्ञ 'सुखबोधा' संस्कृत टीका से श्रोकों के अर्थ को आसानी से समझा जा सकता है। शोकों में प्रयुक्त शब्दों को बोधगम्य बनाने के लिये ग्रन्थ- प्रणेता तथा टीकाकार श्री अर्हद्दास ने वैजयन्ती, धनञ्जय, अमरकोष, विश्वकोष तथा नानार्थरत्नकोष से पर्यायवाची शब्दों को उद्धत किया है। इसके साथ ही टीकाकार ने व्याकरण के सूत्रों को भी उद्धृत किया है। इसलिए टीका का 'सुखबोधा' नामकरण समीचीन है। डॉ. जैन ने प्राक्कथन में पर्यायवाची शब्दों के अनन्तर (=) तथा समास पूर्व (-) चिह्न दिए हैं। इस प्रकार यह सटीक सुसम्पादित संस्करण है। प्रस्तुत ग्रन्थ रत्न एक महाकाव्य है, जो दस भागों में विभक्त है। यह महाकाव्य के सभी लक्षणों से उपेत है। ग्रन्थप्रणेता के अनुसार इसका मुख्य प्रयोजन जिनेन्द्रदेव (तीर्थङ्कर मुनिसुव्रतनाथ) के चरित्र का वर्णन करना है। क्योंकि वे ही प्राणियों के लिए चिन्तामणि और हृद्यार्थ रूपी रत्न की एकमात्र निधि हैं - यद्वय॑ते जैनचरित्रमत्र चिन्तामणिर्भव्यजनस्य यच्च। हृद्यार्थरत्नैकनिधिः स्वयमेतत्काव्यरत्नाभिधमेतदस्तु।। इसके अतिरिक्त अति पराक्रमी तीर्थङ्कर मुनिसुव्रत के पिता सुमित्र तथा तीर्थङ्कर मुनिसुव्रत की माता पद्मावती के चरित्र का भी इस महाकाव्य में चित्रण है। तीर्थङ्कर जिनेन्द्रदेव मुनिसुव्रत का चरित्र ही सबसे महत्त्वपूर्ण है क्योंकि चतुर्थ अङ्क के अनन्तर सुमित्र और पद्मावती के दर्शन नहीं होते हैं। भूमिका में प्रस्तुत समीक्षात्मक अध्ययन नितान्त मौलिक एवं शोधपरक है। इसमें डॉ. जैन ने जैन संस्कृतकाव्य-साहित्य के उद्भव और विकास पर विस्तृत चर्चा करने के साथ ही महाकाव्य के प्रणेता महाकवि श्री अर्हद्दास के जीवन एवं कृतित्त्व पर विस्तार से प्रकाश डाला है। डॉ. जैन ने प्रस्तुत महाकाव्य के महाकाव्यत्व को साहित्यशास्त्र के ग्रन्थों में प्रदत्त महाकाव्य के लक्षणों के आधार पर सिद्ध किया है। विद्वानों का मन्तव्य है कि इसमें देवियों द्वारा पद्मावती की सेवा, कुबेर द्वारा रत्न-वृष्टि, विशद मङ्गलाचरण, सज्जन -प्रशंसा, दुर्जन - निन्द्रा आदि प्रबन्ध रूढ़ियों के कारण इसे पौराणिक महाकाव्य मानना उचित होगा। समीक्षा में ग्रन्थ के भावपक्ष तथा कलापक्ष का प्रस्तुतीकरण भी ग्रन्थ के महत्त्व को उजागर करता है। इसमें नारी-सौन्दर्य का नख-शिख वर्णन, पुरुष-सौन्दर्य में राजा सुमित्र का आभ्यन्तर सौन्दर्य तथा मुनिसुव्रत का बाह्य-सौन्दर्य विशेष महत्त्व का है। प्रकृति कहीं आलम्बन-विभाव के रूप में और कहीं उद्दीपन विभाव के रूप में चित्रित है। प्रथम और नवम सर्ग में प्रकृति चित्रण से कवि की वर्णन शैली का परिज्ञान होता है, जिसका निरूपण डॉ. जैन द्वारा किया गया है। अपनी समीक्षा में डॉ. जैन का कथन है कि वीभत्स, रौद्र एवं भयानक रसों को छोड़ सभी रसों का परिपाक प्रस्तुत महाकाव्य में हुआ है। सर्गों में प्रयुक्त होने वाले अलंकारों और छन्दों का उल्लेख डॉ. जैन ने पृष्ठ 56 और 57 पर किया है। इस ग्रन्थ-रत्न की भाषा सरस एवं प्रौढ़ है। टवर्ग तथा कर्णकटु वर्णों का सर्वथा अभाव है। इस प्रकार भाव-पक्ष तथा कला-पक्ष के वर्णन में डॉ. जैन की मौलिक प्रतिभा झलकती है। डॉ. जैन ने ग्रन्थ का हिन्दी में अनुवाद भी किया है, जो बीसवें तीर्थङ्कर भगवान् मुनिसुव्रतनाथ के जीवन एवं 432