________________ 'श्रावकाचार' पर भी इसी प्रकार की एक रचना डॉ. जैन से तैयार कराई जाए। लेखक की लेखनी बड़ी परिमार्जित, सधी हुई तथा शोध को लिए हुए है। 3. प्रो. खुशालचन्द्र गोरावाला, वाराणसी- डॉ. जैन ने आधुनिक शोध प्रक्रिया को अपनाकर प्रकृत रचना की है। डॉ. जैन का प्रयास घ्य है। 4. डॉ. देवेन्द्र कुमार शास्त्री, नीमच - डॉ. जैन ने श्रम करके एक उत्तम संकलन पुस्तक के रूप में प्रस्तुत किया है जो स्वागत योग्य है। डॉ. पंकज कुमार जैन 'ललित' प्राध्यापक- जैनदर्शन, राष्ट्रिय संस्कृत संस्थान, भोपाल, म.प्र. प्राकृत दीपिका - एक प्राकृतभाषा-ज्ञान-प्रदीप पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी से दो संस्करणों में प्रकाशित 'प्राकृत-दीपिका' प्राकृत ज्ञान के लिए अनुपम ज्ञान-दीप है, हैण्डबुक है। प्राकृत स्वाभाविक भाषा है। भारतीय भाषाओं के विकास में इन प्राकृतों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। पंजाबी, राजस्थानी, गुजराती, हिन्दी, मराठी, बङ्गला, उड़िया आदि अनेक भाषाओं का विकास इन्हीं प्राकृतों से हुआ है। युग-युग तक प्राकृत ही जन-जन की भाषा रही है। जिस तरह आज हिन्दी सभ्य वर्ग की एक साहित्यिक भाषा होते हुए भी घरघर में भोजपुरी, बुन्देली, मालवी, मेवाड़ी, मारवाड़ी आदि लोकभाषाएँ ही प्रचलित हैं, जैन एवं बौद्ध धर्म के प्रवर्तकों एवं आचार्यों ने अपने को जन-जन से जोड़ने के लिए प्राकृतों को अपनाया। आज प्राकृत का ज्ञान, अध्ययन एवं अध्यापनधीरे-धीरे विलुप्त होता जा रहा है। सम्पूर्ण देश में पालि एवं प्राकृत के विद्वानों की संख्या अङ्गुलियों पर गिनने योग्य है। इस पुस्तक से प्राकृत के जानने वालों की संख्या बढ़ रही है। जो लोग संस्कृत के अध्ययन में निरत हैं और जो संस्कृत की शैली में प्राकृत सीखने के इच्छुक हैं। प्राकृत दीपिका - दोनों ही प्रकार के लोगों की अपेक्षाओं को ध्यान में रखकर लिखी गयी कृति है। जैनों का आगम-साहित्य अर्धमागधी प्राकृत तथा शौरसेनी प्राकृत में मिलता है। वैदिक संस्कृत में साहित्यिक प्राकृत की प्रवृत्तियाँ भी बहुतायत में मिलती हैं। जैसे- (1) अपवाद स्थलों का बाहुल्य, (2) द्विवचन के स्थान पर बहुवचन का प्रयोग, (3) अन्त्य व्यञ्जन के लोप की प्रवृत्ति, (4) धातुओं में गणभेद का अभाव, (5) आत्मनेपदपरस्मैपद के भेद का अभाव, (6) वर्तमान काल और भूतकाल के क्रियापदों में प्रयोगों की अनियमितता (7) नामरूपों में विभक्ति-व्यत्यय (चतुर्थी के स्थान पर षष्ठी तथा तृतीया के स्थान पर षष्ठी या सप्तमी का प्रयोग) आदि। इस तरह वैदिक काल से ही हमें प्राकृतभाषा के बीज मिलते हैं। तीन भागों- (व्याकरण, अनुवाद और संकलन) में विभक्त 'प्राकृत दीपिका' प्राकृत के ज्ञान के लिए अति उत्तम कृति है। विद्वानों के अभिमत - 1. डॉ. नेमिचन्द जैन, सम्पादक, तीर्थङ्कर, इन्दौर- पुस्तक उपयोगी और प्राकृत का आरम्भिक (विशिष्ट भी) अध्ययन करने वालों के लिए एक उल्लेख्य आधार है। 2.डॉ. सागरमल जैन, निदेशक, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी - डॉ. सुदर्शनलाल जेन का यह ग्रन्थ दोनों ही प्रकार के लोगों (असंस्कृतज्ञ और संस्कृतज्ञ) की अपेक्षाओं को ध्यान में रखकर लिखा गया है। - प्रो० विजय कुमार जैन राष्ट्रिय संस्कृत संस्थान, लखनऊ 431