Book Title: Siddha Saraswat
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Abhinandan Granth Prakashan Samiti

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Page 450
________________ आता है ऐसे कल्पित देवों को अदेव (अदेवे देवबुद्धिः) कहा गया है।' (पृ.2) देवस्तुति का प्रयोजन स्पष्ट करते हुए प्रो. साहब ने लिखा है कि- 'वीतरागी अर्हन्त और सिद्धों की भक्ति किसी सांसारिक-कामना की पूर्ति हेतु नहीं की जाती, अपितु उन्हें आदर्श पुरुषोत्तम मानकर केवल उनके गुणों का चिन्तवन किया जाता है और वैसा बनने की भावना भायी जाती है। फलतः भक्त के परिणामों में स्वभावतः निर्मलता आती है, इसमें ईश्वरकृत कृपा आदि अपेक्षित नहीं है। देवमूर्ति, शास्त्र एवं गुरु के आलम्बन से भक्त अपना कल्याण करता है। अत: व्यवहार से उन्हें कल्याण का कर्ता कहते हैं, निश्चय से नहीं, क्योंकि कोई द्रव्य अन्य द्रव्य का कर्ता नहीं है, सभी द्रव्य अपने-अपने कर्ता हैं। (पृ.4) देवत्व की पूज्यता को परिभाषित करते हुए प्रो. साहब ने लिखा है कि - 'पूज्य वही है जो देव हो और देवत्व (ईश्वरत्व) वहीं है जहाँ रत्नत्रय अथवा रत्नत्रय का अंश अथवा शुद्ध रत्नत्रय प्राप्ति की हेतुता हो।'(पृ.7) देव, शास्त्र और गुरु कृति में प्रो. साहब ने सम्यक् शास्त्र की प्रामाणिकता का आधार स्पष्ट करते हुए लिखा है कि- जो ग्रन्थ अनेकान्त और स्याद्वाद आदि सिद्धान्तों के अनुसार वीतरागता का अथवा रत्नत्रय आदि का प्रतिपादन करते हैं वे ही प्रामाणिक हैं, अन्य नहीं। शास्त्रकार ने जिस बात को जिस सन्दर्भ में कहा है, हमें उसी सन्दर्भ की दृष्टि से अर्थ करना चाहिए, अन्यथा मूलभावना (मूल सिद्धान्त) का हनन होगा, जो इष्ट नहीं है।' (पृ.28) गुरु के गुरुत्व को प्रकाशित करते हुए प्रो. साहब ने लिखा है कि- वास्तव में 'गुरु' शब्द का अर्थ है 'महान्'। 'महान्' वही है जो अपने को कृतकृत्य करके दूसरों को कल्याणकारी मार्ग का दर्शन कराता है। जब तक व्यक्ति स्वयं वीतरागी नहीं होगा तब तक वह दूसरों को सदुपदेश नहीं दे सकता है। यह आवश्यक नहीं है कि गुरु जब मुख से उपदेश देवे तभी गुरु है अपितु गुरु वह है जो मुख से उपदेश दिये बिना भी अपने जीवनदर्शन द्वारा दूसरों को सन्मार्ग में लगा देवे। (पृ.47) साधुता के आभ्यन्तर पक्ष को उद्घाटित करते हुए प्रो. साहब ने लिखा है कि-'हर्ष और विषाद दोनों अवस्थाओं में समभाव वाला ही सच्चा साधु है, अन्य नहीं। ऐसा समदर्शी साधु ही हमारा आराध्य है, गुरु है। क्योंकि उसने शारीरिक, मानसिक और वाचिक सभी प्रकार के कष्टों पर विजय प्राप्त कर ली है। कष्टों का कारण है राग और जहाँ राग है वहीं द्वेष है। राग द्वेष के होने पर क्रोधादि चारों कषाएँ और नौ नोकषाएँ होती हैं। अत: साधु को वीतरागी कहा है, क्योंकि जहाँ राग नहीं वहाँ द्वेषादि तथा कष्ट भी नहीं होते हैं।' (पृ.118) निर्ग्रन्थ गुरुओं की प्रतिष्ठा सर्वोपरि है। वर्तमान में हो रहे इस प्रतिष्ठा के ह्रास को रोकने के लिए प्रो. साहब ने अपने महत्त्वपूर्ण चिन्तन को प्रकट करते हुए लिखा है कि 'साधु तभी बने जब साधुधर्म का सही रूप में पालन कर सके। अपरिपक्व बुद्धि होने पर अथवा आवेश में दीक्षा न स्वयं लेवे और न दूसरों को देवें। पापश्रमण न बने। पापश्रमण बनने की अपेक्षा पुनः गृहस्थ धर्म में आ जाना श्रेष्ठ है। साधुधर्म बहुत पवित्र धर्म है। अतएव जो इसका सही रूप में पालन करता है वह भगवान् कहलाता है। (पृ.115) प्रो. साहब ने देव,शास्त्र और गुरु कृति में आगम का आलोडन करते हुए ऐसे ही अनेक महत्त्वपूर्ण विचार व्यक्त किये हैं। इस कृति में प्रो. साहब का समग्र चिन्तन परम्परागत शास्त्रीय भूमि पर ही प्रकट हुआ है उन्होंने कहीं भी जिनागम की आज्ञा के विपरीत कोई कथन नहीं किया है। इस कारण यह कृति सभी के लिए संग्रहणीय, पठनीय एवं अनुकरणीय बन गयी है। प्रो. सुदर्शन लाल जी ने इस अद्वितीय कृति का लेखन करके जिनागम के भण्डार की श्रीवृद्धि में महनीय अवदान दिया है। उनके इस सारस्वत अवदान के लिए साहित्य जगत् सदैव कृतज्ञ रहेगा। विद्वानों के अभिमत - 1. पं. जगन्मोहन शास्त्री कटनी - डॉ. सुदर्शन लाल जैन, जो वर्तमान में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में संस्कृत विभाग के अध्यक्ष हैं, अ.भा. दि. जैन विद्वत्परिषद् के मंत्री तथा श्री गणेश वर्णी दि. जैन शोध संस्थान के कार्यकारी मंत्री भी हैं, ने जैन शास्त्रों का सम्यक् आलोडन करके सच्चे देव, शास्त्र और गुरु की यथार्थ परिभाषा को तथा उसके नग्न स्वरूप को उजागर किया है। देव, शास्त्र और गुरु के सत्यार्थ की जानकारी समाज के बच्चे-बच्चे के लिए आवश्यक है। आशा है, इस पुस्तक को पढ़कर न केवल जैन समाज अपितु सत्यान्वेषी जैनेतर समाज को भी लाभ मिलेगा। 2. डॉ. दरबारी लाल कोठिया, बीना - लेखक ने किसी भी विषय पर बिना शास्त्रीय प्रमाणों के लेखनी नहीं चलाई है। सधी हुई लेखनी के अतिरिक्त गहरा विचार भी सरल भाषा में प्रस्तुत किया है। कोई विषय विवाद का नहीं है। 430

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