________________ के समान अधम प्राकृत पुरुषों का आलम्बन करेगा? अर्थात् कल्पलतिका जैसे विषवृक्ष का तिरस्कर कर कल्पवृक्ष का आश्रय लेती है, वैसी ही मेरी श्रोयाभिलाषिणी वाणी अधम नायक की उपेक्षा कर जिनेन्द्र भगवान् को ही चरित नायक बनाएगी। उनका स्पष्ट वक्तव्य है कि भगवच्चरित्र से प्रेरित होकर ही वे इस काव्य का प्रणयन कर रहे हैं। उनका यह प्रयास वैसे ही है, जैसे पिशाचग्रस्त व्यक्ति बड़े बड़े पर्वतों को कम्पित करने में समर्थ हो जाता है, वैसे ही बहुज्ञानसाध्य यह कार्य अल्पज्ञ होने पर भी मेरे द्वारा सम्पन्न हो सके। वि.सं. 1300-1400 के प्रारम्भिक भाग में विद्यमान अर्हदास का यह काव्य साहित्यिक समीक्षा के निष्कर्ष पर कसे जाने पर उत्तम काव्यरत्न सिद्ध होता है। प्रो. सुदर्शनलाल जैन ने अपने विस्तृत भूमिका भाग में काव्यशास्त्रीय समालोचना के विभिन्न मानकों के अनुसार इस काव्य के विभिन्न पक्षों का बहुत सुन्दर एवं व्यवस्थित विश्लेषण किया है। मुनिसुव्रत काव्य का कथानक पौराणिक है, जिसकी मूल कथा गुणभद्रकृत जैन उत्तरपुराण से ली गई है। दस सों एवं 408 पद्यों में निबद्ध इस महाकाव्य के नायक सत्कुलोत्पन्न मुनि सुव्रतस्वामी हैं, जो काव्यशास्त्रीय मानदण्डों के अनुसार वीरप्रशान्त कोटि के नायक हैं। काव्य का अङ्गीरस शान्त हैं तथा प्रसङ्गानुसार शृङ्गारादि अन्य रस अङ्गरूप में आगत हैं। चार पुरुषार्थों में परिगणित धर्म एवं मोक्ष इसके उद्देश्य हैं। कथानक पञ्च सन्धियों से युक्त है एवं सर्ग के अन्त में छन्द परिवर्तन है। इसमें स्थान-स्थान पर विभिन्न प्राकृतिक दृश्यों का सुन्दर संयोजन है। नगर, उपवन, पर्वत, नदियों, ऋतुओं आदि नाना प्रकार के वर्ण्य विषयों का इसमें समावेश है, जो इसे एक उत्कृष्ट काव्य की संज्ञा से विभूषित करते हैं। इस महाकाव्य के नायक मुनिसुव्रतस्वामी मगध देश की राजधानी राजगृह के राजा सुमित्र के पुत्र हैं। सज्जनों के रक्षण एवं दुर्जनों का दमन करने के कारण सुमित्र अन्वर्थ नाम वाले थे। उनकी पद्मावती नामक अनन्य सुन्दरी रानी थी जिनके गर्भ से मुनिसुव्रत का जन्म हुआ। कथाक्रम के अनुसार ये पूर्वजन्म में अङ्गदेश के चम्पापुर नामक नगर में हरिवर्मा नामक राजा थे, जिनका यश समग्र भूमण्डल में व्याप्त था। इस मनीषी राजा ने अन्तरङ्ग भाव से भोग एवं शरीर के राग को तुच्छ जानकर स्वयं अपने राजपद को उपेक्षित कर जिनेन्द्र मुनि अनन्तवीर्य के चरणों में दिगम्बर जिनदीक्षा ले ली। नाना प्रकारक तपश्चरण करते हुए आभ्यन्तर एवं बहिरङ्ग तप साधनों से प्रभूत पुण्यार्जन कर वे प्राणत स्वर्ग के प्राणत नाम वाले विमान में प्राणतेन्द्र नामक देवेन्द्र हुए। बीस सागर प्रमाण आयु वले वे प्राणतेन्द्र ही सुमित्र एवं पद्मावती के घर पुत्ररूप में जन्मे एवं बाद में बीसवें तीर्थङ्कर के रूप में विख्यात हुए। महाकाव्य में अनेक अलौकिक जीवन-चक्र का सुन्दर वर्णन किया गया है। उनके गर्भ में आने से पूर्व देवगण अलौकिक सिद्धियों का प्रदर्शन करने लगे। स्वयं देवाङ्गनाएँ देवराज इन्द्र के आदेश से उनकी माता पद्मावती के पास पहुँची। उन्होंने राजा-रानी के समक्ष उनकी भावी सन्तान के पूर्वजन्म का वृत्त एवं कल्याणकारी भविष्यफल भी सुनाया। रानी पद्मावती का नाना प्रकारक अलङ्करण किया। रानी ने क्रमश:- सोलह स्वप्न देखे जो मानों स्वयं उसके गुणों के आख्यापक थे- 1. गजेन्द्र, 2. वृषभेन्द्र, 3. सिंह, 4. लक्ष्मी, 5. मालायुगल, 6. चन्द्र, 7. सूर्य, 8. मीन युगल, 9. कलश युगल, 10. वापी, 11. समुद्र. 12. सिंहासन, 13. विमान, 14. नागभवन, 15. रत्नराशि, निधूम और 16. अग्नि। राजा सुमित्र ने रानी से इन स्वप्नों को सुनकर उनकी व्याख्या की -रानी पद्मावती तुम्हें तीनों लोकों के भव्य जीवों का एकमात्र मित्र रूप विविध गुण सम्पन्न तीर्थङ्कर पुत्र होगा। जो गजेन्द्र दर्शन से उन्नत चरित्र वाला, वृषभ दर्शन से धर्मोद्धारक, सिंहदर्शन से पराक्रमी, लक्ष्मीदर्शन से अत्यधिक श्रीसम्पन्न, मालायुगल दर्शन से सबका शिरोधारी, चन्द्रदर्शन से संसारतापहर्ता, सूर्य दर्शन से अति तेजस्वी, मीनदर्शन से सुन्दर आकृति वाला, कलशदर्शन से कल्याणास्पद, सरोवर दर्शन से वात्सल्य रस युक्त, समुद्रदर्शन से गम्भीर बुद्धि वाला, सिंहासन दर्शन से राज्य सिंहासनाधिपति देवविमान दर्शन, नागभवन दर्शन, रत्नराशिदर्शन तथा निर्धूम अग्निदर्शन से क्रमशः देवागमन युक्त नागागमन युक्त, त्रिरत्न गुणों का उद्गम एवं अष्टकर्म दहन करने वाले गुणों से युक्त होगा। स्वाभाविक है ऐसे गुणों के पुञ्जरूप पुत्र के आगमन की कल्पना मात्र से दम्पती सुमित्र व पद्मावती अत्यन्त हर्षित हुए। समयानुसार प्राणत स्वर्ग से आकर श्रावण मास के कृष्ण पक्ष की द्वितीया तिथि को श्रवण नक्षत्र तथा शिवयोग में रात्रि के अन्तिम प्रहर में गजाकार रूप से मुख विवर द्वारा पद्मवती के शरीर में हरिवर्मा का जीव प्रविष्ट हुआ। भावी तीर्थङ्कर पुत्र का यह अलौकिक प्रभाव था कि कुबेर राजनगरी में पन्द्रह मास पर्यन्त तीनों सन्ध्याओं में 434