________________ अवशिष्ट रहती है। इस सन्दर्भ में निम्न हेतुओं से उस शंका का निवारण कर लेना चाहिए(1) हेमचन्द्र ने स्वरमध्यवर्ती 'य' लोप के जो दो उदाहरण (दयालु और नयणं) दिए हैं उनमें 'य' विद्यमान है जो वहाँ 'य' लोप के बाद पुनः होने वाली 'य' श्रुति का द्योतक है, मूल यकार का नहीं। (2) हेमचन्द्र 'प्रायः' की व्याख्या करते समय 'य' लोपाभाव का एक भी उदाहरण नहीं देते जबकि 'क, ग' आदि के लोपाभाव के उदाहरण देते हैं। (3) वररुचि ने जो 'य' लोपाभाव का उदाहरण दिया है वहाँ भी य ज में परिवर्तित हो गया है। (4) वररुचि ने महाराष्ट्रीप्राकृत में न तो 'य' श्रुति का विधान किया है और न 'य' युक्त किसी पद को उदाहरण के रूप में अपने ग्रन्थ में दिया है। हेमचन्द्र जहाँ 'य' श्रुति का प्रयोग करते हैं वहाँ वररुचि उद्वृत्त 'अ' का प्रयोग करते हैं। हेमचन्द्र से वररुचि पूर्ववर्ती हैं। 'य' श्रुति बाद का विकास है। अत: 'य' का नित्य लोप होना चाहिए। (5) संस्कृत व्याकरण में भी लघुप्रयत्नोच्चारित 'य' का उल्लेख मिलता है जिससे 'य' श्रुति की मूल 'य' से भिन्नरूपता सिद्ध होती है। (6) प्राचीन महाराष्ट्रीसाहित्यिक भाषा में 'य' श्रुति का प्रयोग नहीं है। 'य' श्रुति सुखोच्चारणार्थ आई है जिसकी ध्वनि 'य' से मिलती-जुलती है, परन्तु ‘य नहीं है। अतः श्रुति शब्द का प्रयोग उसके साथ किया गया है, 'य' होता है ऐसा नहीं कहा गया। (7) 'य' का नित्यलोप होता है ऐसा न कहने का कारण है 'य' में होने वाले विभिन्न परिवर्तनों को बतलाना तथा सूत्रों को लघुरूपता देना। (8) 'र' जो कि सबसे कमजोर वर्ण है उसके साथ संयुक्त होने पर भी 'य' या तो 'इ' स्वर में बदल जाता है या हट जाता है और 'र' रह जाता है। (9) समानवर्गीय वर्ण संयुक्तावस्था में पाए जाते हैं परन्तु दो य् संयुक्त (य्+य्) भी नहीं पाए जाते / अन्तःस्थ ल और व स्ववर्गीय वर्ण के साथ संयुक्त पाए जाते हैं। (10) 'य' के साथ कहीं भी स्वरभक्ति नहीं देखी जाती। 'त' श्रुति का भी विधान है अन्य प्राकृत में। इन सभी सन्दर्भो से सिद्ध है कि महाराष्ट्रीप्राकृत में मूल संस्कृत के 'य' वर्ण का सर्वथा अभाव है। मागधी आदि प्राकृत भाषाओं की स्थिति भिन्न है। मागधी में न केवल मूल 'य' पाया जाता है अपितु वहाँ 'ज' का भी 'य' होता है। सन्दर्भ - 1. आदेर्यो जः / हेम0 8.1.245 / वर0 2. 31 2. हेम0 8.1.245 वृत्ति। 3. वही, वृत्ति 4. वर0 2.2 5. हेम 8.1.245 वृत्ति। 6. वही। 7. यट्यां लः / वर0 2. 32 तथा वृत्ति (भामहकृत)। हेम0 8.1.247 8. कगचजतदपयवां प्रायो लुक् / हेम0 8.1.177 / वर0 2.2 9. अवर्णो यश्रुतिः / हेम0 8.1.180 10. प्राकृत-दीपिका, पृ0 16 11. वर0 2.2 वृत्ति 12. हेम0 8. 1. 180 13. व्योर्लघुप्रयत्नतर: शाकटायनस्य। अष्टाध्यायी 8.3.18 पदान्तयोर्वकारयकारयोर्लघुच्चारणौ वयौ वा स्तोऽशि परे। यस्योच्चारणे जिह्वाग्रोपाग्रमध्यमूलानां शैथिल्यं जायते स लघूच्चारणः / वही, भट्टोजिदीक्षितवृत्ति / लघुः प्रयत्नः यस्योच्चारणे स लघुप्रयत्नः / अतिशयित: लघुप्रयत्नः लघुप्रयत्नतरः। प्रयत्ने लघुतरत्वं चैषां शैथिल्यजनकत्वमेव / / 14. प्राकृत दीपिका, पृ08 399