________________ इन 12 भेदों में प्रथम अविद्या और संस्कार अतीत जीवन से सम्बन्धित हैं, अन्तिम दो भविष्य जीवन से तथा यवर्ती वर्तमान जीवन से। इनमें पूर्ववर्ती कारण हैं और उत्तरवर्ती कार्य हैं। यदि जन्म की शकला को तोड़ना है तो भव के प्रत्ययों का उच्छेद करना होगा अर्थात् भव के निरोध से उपादान, तृष्णा आदि सभी प्रत्ययों का उच्छेद हो जायेगा। प्रतीत्य-समुत्पाद को मध्यमा-प्रतिपदा (नित्यता तथा उच्छिन्नता से रहित) भी कहते हैं। अष्टाङ्गमार्ग या रत्नत्रय (दुःखनिरोध मार्ग ) जिस तरह दुःख है तो दु:ख के कारण हैं उसी तरह दुःखों से निवृत्ति (निर्वाण) है और उस दुःख निवृत्ति के उपाय (कारण) भी हैं। दुःख निवृत्ति के लिए अष्टाङ्गमार्ग का अनुसरण आवश्यक है। इसके क्रमश: आठ अङ्ग हैं(1) सम्यग् दृष्टि (यथार्थ दृष्टि, क्षणिक दृष्टि, आर्य सत्य दृष्टि) / (2) सम्यक् सङ्कल्प (दृढ़ निश्चय, प्राणिमात्र के प्रति करुणा व प्रेम) (3) सम्यग् वाक् (यथार्थ वचन या सत्य बोलना) (4) सम्यक् कर्मान्त (पाप कर्मों को त्यागकर सदाचरण करना) (5) सम्यग् आजीव (पाप क्रियाओं को छोड़कर अहिंसक वस्तुओं द्वारा आजीविका का निर्वाह करना) (6) सम्यग् व्यायाम (बुरे कर्मों का त्याग व शुभ विचारों का समादर/ यथार्थ पुरुषार्थ) (7) सम्यक् स्मृति (यथार्थ चिन्तन/सतत् जागरूकता) (8) सम्यक् समाधि (कुशल-चित्त की एकाग्रता) इन आठ अङ्गों में प्रथम दो प्रज्ञा से, अन्तिम दो समाधि से तथा मध्यवर्ती चार शील से सम्बन्धित हैं। प्रज्ञा, शील और समाधि को त्रिरत्न' भी कहा जाता है, क्योंकि ये निर्वाण में रत्नवत् उपादेय (ग्राह्य) है। यह आचरण का मार्ग है। इसी से तृष्णा का निरोध होता है। पश्चात् क्रमशः स्रोतापन्न (प्रवाह में प्रवेश) सकृदागामी (एक जन्ममात्र), अनागामी और अर्हत्व को प्राप्त करता है। नामरूपात्मक पञ्चस्कन्ध (आत्मा) बौद्धदर्शन के अनुसार व्यक्ति नामरूपात्मक पञ्चस्कन्धों का समुदाय है। जैसे रथ की सत्ता रथाङ्गों की सत्ता से भिन्न नहीं है, उसी प्रकार आत्मा की सत्ता पञ्चस्कन्धों से भिन्न नहीं है। व्यक्ति दो अवस्थाओं का पुञ्ज है- शारीरिक (रूप) और मानसिक (नाम)। इन दोनों अवस्थाओं को नामरूप कहते हैं। स्थूल पुञ्ज (भौतिक शरीर) 'रूप' कहलाता है और सूक्ष्मपुञ्ज 'नाम' कहलाता है। नाम चार अवस्थाओं वाला है- वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान / पञ्चस्कन्धों का स्वरूप निम्न प्रकार है(1) रूप स्कन्ध - पृथ्वी, जल, तेज और वायु ये चार महाभूत रूप स्कन्ध कहलाते हैं। इनसे सत्त्व (जीव) की शारीरिक संरचना होती है। (2) वेदना स्कन्ध - सुख, दुःखादि अनुभूतियों को वेदना कहते हैं। मधुर आदि रसों का वेदन भी वेदना है। (3) संज्ञा स्कन्ध - गुणों के आधार पर वस्तु का नामकरण। यह पहचान या परिचय ही संज्ञा स्कन्ध है। संज्ञा राग-द्वेष के उदय में निमित्त है। (4) संस्कार स्कन्ध - कुशल-अकुशल, धर्म-अधर्म रूप संस्कार स्कन्ध हैं। ये 3 प्रकार के हैं- कायसंस्कार (श्वासप्रश्वास), वाक् संस्कार और चित्त संस्कार। (5) विज्ञान स्कन्ध - बाह्य और आभ्यन्तर (चैतन्य, अहं, मैं) का ज्ञान-विज्ञान स्कन्ध है। विज्ञान सन्तान ही अन्य दर्शनों में आत्मा है। आत्मा को भगवान् बुद्ध ने अव्याकृत, अप्रयोजनीय कहा है। विज्ञानाद्वैतवादियों ने विज्ञान के दो भेद किए हैं- आलय विज्ञान और प्रवृत्ति विज्ञान। मनोविज्ञान, तर्क-वितर्क रूप है। इन पाँचों स्कन्धों से रूप स्थूल है शेष सूक्ष्म हैं, जो क्रमश: सूक्ष्म से सूक्ष्मतर होते जाते हैं। वस्तुतः विज्ञान विजानन को कहते हैं। पूर्वजन्म के किए गए कुशल या अकुशल कर्मों के विपाक स्वरूप चित्तधारायें प्रकट होती हैं, जिनके कारण ही प्राणी विषयों को जानता है। क्षणिकवाद (अनित्यवाद) प्रत्येक वस्तु प्रथम क्षण में उत्पन्न होकर द्वितीय क्षण में अन्य को उत्पन्न कर नष्ट हो जाती है। नित्य या सनातन कुछ भी नहीं है। प्रत्येक वस्तु एक क्षण ही ठहरती है, द्वितीयादि क्षणों में तदाकार अन्य-अन्य वस्तु उत्पन्न होती रहती है। 402