________________ उसकी इस सन्तान परम्परा को देखकर लोग उसे नित्य समझ लेते हैं। बौद्धदर्शन में अर्थक्रियाकारित्व (कार्योत्पादन का सामर्थय) को ही 'सत्' कहा गया- 'अर्थ क्रियाकारित्वं सत्' नित्यता में अर्थक्रिया सम्भव नहीं है। प्रतीत्यसमुत्पाद ( हेतु-प्रत्ययवाद) इसका अर्थ है- 'अस्मिन् सति इदं भवति, अस्मिन् असति इदं न भवति' (विशुद्धिमग्ग 17.11) अर्थात् कारण के रहने पर कार्य का उत्पन्न होना और कारण के न रहने पर कार्य का न होना। यह कारणोत्पन्नता और अर्थक्रियाकारिता ही सभी वस्तुओं की और धर्मों की क्षणभंगुरता (अनित्यता) सिद्ध करती है। जिस प्रकार दीपक की प्रथम क्षणवर्ती शिखा दूसरी शिखा को उत्पन्न करके नष्ट हो जाती है, उसी तरह एक संस्कार (या स्मृति) अन्य संस्कार को उत्पन्न कर नष्ट हो जाता है। यह प्रवाह निरन्तर चलता रहता है। इसी से नित्यता का भ्रम होता है। इसी प्रकार कर्म और कर्मफल की परम्परा चलती रहती है। यह प्रवाह भी क्षणिक है। यहाँ सत्ता के अस्तित्त्व का निषेध नहीं है अपितु उसकी सतत-नित्यता का निषेध है। अनित्यता होने पर भी उसकी सन्तति बनी रहती है। अनात्मवाद और पुनर्जन्म का सिद्धान्त बौद्धदर्शन में आत्मवाद को 'सत्कायदृष्टि' कहा है। नित्य और अपरिणामी आत्मा को स्वीकार करना 'सत्कायदृष्टि है। जब तक यह सत्कायदृष्टि रहेगी तब तक न तो राग-द्वेष (ममकार) छूटेगा और न निर्वाण (मोक्ष) होगा। निर्वाण प्राप्ति के लिए सब प्रकार की कामनाओं (अहं भाव, आत्मभाव, विषय-वासनाओं) का त्याग आवश्यक है। इसीलिए भगवान् बुद्ध ने अनात्मवाद का उपदेश दिया क्योंकि आत्मा के सुख के लिए ही सब प्रकार की ऐहलौकिक और पारलौकिक कामनायें होती हैं। यहाँ अनात्मवाद से तात्पर्य है 'आत्मसन्ततिवाद' या विज्ञान सन्ततिवाद या चैतन्य सन्ततिवाद अर्थात् जैसे अन्य पदार्थ प्रतिक्षण नवीन-नवीन रूपों में परिवर्तित होते रहते हैं, उसी प्रकार आत्मतत्त्व भी प्रतिक्षण नवीन-नवीन रूपों में परिवर्तित होता रहता है। उसकी सन्तति चलती रहती है। यहाँ यह ध्यान रखना जरूरी है कि चैत्र की सन्तति में चैत्र की सन्तति को ही कर्म का फल मिलेगा अनुभूत विषय की स्मृति होगी, मैत्र की सन्तति को नहीं। मैत्र के अनुभव की स्मृति मैत्र की सन्तति में ही होगी, चैत्र की सन्तति में नहीं। क्योंकि चैत्र की बुद्धि मैत्र की बुद्धि से अत्यन्त भिन्न धारा है। यदि ऐसा नहीं माना जायेगा तो कर्मफल व्यवस्था, स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, पुनर्जन्म वगैरह कुछ भी सम्भव नहीं होगा। गुरु-शिष्य, पिता-पुत्र, पति-पत्नी के मध्य एक-सन्तान-परम्परा नहीं बनती क्योंकि ये सभी परस्पर अत्यन्त भिन्न हैं। उपादान कारण में ही एक सन्तानता होती है। क्योंकि उनमें उपादान-उपादेय भाव सम्बन्ध है, सहकारी कारणों में एक सन्तानता नहीं होती। जैसे मिट्टी से घड़ा बनने में मिट्टी उपादन कारण है, कुम्भकार आदि नहीं। आत्म-विज्ञान या चैतन्य की अनिवार्यता भगवान् बुद्ध वस्तुतः आत्मा को 'अव्याकृत' और 'अप्रयोजनीय' मानते थे। उनका कहना था कि यदि किसी को काँटा चुभ गया है तो उसको निकालने के बारे में सोचना चाहिये, न कि ये काँटा किसका है, किसे लगा, क्यों लगा आदि? इसी तरह संसार में जीव (पुद्गल) दु:खों से पीड़ित हैं। अत: उनके दु:खों को दूर करने का उपाय सोचना चाहिए। आत्मा की नित्यता का निषेध करके भी उन्होंने पुनर्जन्म को स्वीकार किया है। महायान के अनुसार बुद्ध ने जनकल्याणार्थ परमकारुणिकतावश कई अवतार (जन्म) लिए और व्यक्तिगत निर्वाण की उपेक्षा की। आत्मा के क्षणिक होने पर भी उसकी सन्तति का प्रवाह अविच्छिन्न रूप से संसारावस्था में चलता रहता है इसीलिए स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, पुनर्जन्म, निर्वाण आदि की व्यवस्था बन पाती है। सन्तति को कथञ्चित् नित्य न मानने पर पुनर्जन्म कैसे सम्भव है? इसके उत्तर में भदन्त नागसेन राजा मिलिन्द से कहते हैं। जैसे एक युवक वृद्धावस्था के आने पर न तो वही रहता है और न अन्य हो जाता है, वैसे ही जो पुनर्जन्म ग्रहण करता है वह न तो वही रहता है और न सर्वथा अन्य हो जाता है। वस्तुतः नामरूपात्मक सन्ततिप्रवाह ही पुनर्जन्म ग्रहण करता है। मृत्युकाल में जो नामरूप रहता है, वही पुनर्जन्म नहीं ग्रहण करता है, अपितु उसी नामरूप से उत्पन्न अन्य नामरूप पुनर्जन्म को ग्रहण करता है। धर्म-सन्तति संसरण करती है परन्तु शाश्वत रूप से नहीं। वस्तुतः प्रथम जन्म के अन्तिम विज्ञान (चेतना) के लय होते ही दूसरे जन्म का प्रथम विज्ञान उत्पन्न हो जाता है। इस तरह न तो वही रहता है और न सर्वथा दूसरा होता है। उसमें एक कारण-कार्य भाव या सन्ततिप्रवाह का सम्बन्ध रहता है। इस तरह विज्ञानों की प्रवाही धाराओं (सन्ततियों) का सातत्य ही आत्मा है। जिसे अन्य दर्शनों में नित्य कहा गया है। जैनदर्शन में भी आत्मा को कूटस्थ नित्य न मानकर प्रतिक्षण (पर्याय दृष्टि से) उत्पत्ति-विनाश वाला स्वीकार किया है, परन्तु वहाँ बौद्धदर्शनवत् 403