Book Title: Siddha Saraswat
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Abhinandan Granth Prakashan Samiti

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Page 425
________________ निषेधवाक्य नरकादि अनिष्ट के साधनभूत कर्मों से निवृत्त करके कल्याण-सम्पादन करते हैं। अब प्रश्न यह है कि विधिवाक्यों से हमें प्रवर्तना की और निषेधवाक्यों से निवर्तना की प्रतीति कैसे होती है ? मीमांसा दर्शन के अनुसार क्रियापद में प्रधानता प्रत्ययार्थ के लिङ्अंश की होती है और उससे प्रवर्तना (शाब्दी भावना) का ज्ञान होता है। अतः जब नञ् का योग उस लिङ् अंश से किया जाता है तो निवर्तना का ज्ञान होता है। जैसे-'न कलर्ज भक्षयेत्'। पलाण्डु, लशुन आदि को कलज कहते हैं, ऐसे कलज का भक्षण नहीं करना चाहिए क्योंकि ऐसे पदार्थ का भक्षण करने से प्रत्यवाय-अनिष्ट सम्भव है। इस वाक्य में 'न भक्षयेत्' का विभाजन निम्न प्रकार होगा न भक्षयेत् भक्ष धातु (भक्षणार्थक) न (निषेधार्थक निवर्तना) तिङ् प्रत्यय आज्यात अंश (आर्थी भावना = करना) लिङ् अंश (शाब्दी भावना-प्रवर्तना) इस तरह 'न' का अन्वय सर्व प्रधान 'लिङ् अंश से होने पर प्रवर्तनाविरोधी निर्वतना अर्थ होगा / 'भक्ष्' धातु 'तिङ प्रत्यय का उपसर्जन, उपपद या विशेषण सा होने से गौण है। 'तिङ' में भी 'लिङ् अंश की प्रधानता होने से 'न' का अन्वय लिर्थरूपा शाब्दीभावना से ही होगा। शाब्दीभावना प्रवृत्ति कराती है। अतः 'न' से अन्वित होने पर वह निवृत्ति करायेगी। गौण रूप से उपस्थित पद या पदार्थ अपने से भिन्न प्रकार के पद या पदार्थ से अन्वित नहीं हो सकता है। जैसे-'राजपुरुषमानय' (राजपुरुष को लाओ)। यहाँ 'राजा' पद पुरुष का उपार्जन, उपपद या विशेषण है, अत: गौण है / 'आनयन' क्रिया पुरुष के साथ होती है, राजा के साथ नहीं। यदि गौणभूत राजा पद का भी 'आनय क्रिया के साथ अन्वय किया जायेगा तो राजा को भी लाना पड़ेगा जो व्यवहार में असङ्गत है। इसी प्रकार प्रकृत में 'भक्ष्' धातु 'तिङ् प्रत्यय का और 'तिङ् अंश लिङ्का उपसर्जन है। अतः नञ् का अन्वय लिङ्अंश से ही होगा और तब उससे निवर्तना का बोध होगा। नञ् का स्वभाव-नञ् जिस पद के साथ अन्वित होता है वह उस अन्वित पद के अर्थ के विरोधी अर्थ का ज्ञापक होता है। ऐसा उसका स्वथाव है। जैसे - 'घटो नास्ति' (घट नहीं है) में अस्ति' पद के साथ अन्वित 'नञ् घट' की सत्ता की विरोधिनी घट की असत्ता का ज्ञान करा रहा है। 'न' का घट के साथ अन्वय करने पर 'न घटः' - अघटोऽस्ति। ऐसी प्रतीति होगी और तदनुसार 'नञ्' घटविरोधी पटादि को सत्ता का ज्ञापक होगा, जो अनुचित है)। विरोधी शब्द अभाव का वाचक नहीं है अपितु स्वरूपभिन्नता का बोधक है। इस प्रकार 'न कलशं भक्षयेत्' में 'लिङ्के साथ अन्वित 'न' लिङ्की अर्थभूता प्रवर्तना की विरोधिनी निवर्तना का बोध कराता है। जैसे- 'यजेत स्वर्गकामः' (स्वर्गाभिलाषी याग करे) इस विधिवाक्य के सुनने पर 'अयं मां प्रवर्तयति' की प्रतीति होती है। उसी प्रकार 'न कलङ्गं भक्षयेत्' इस निषेधवाक्य के सुनने पर 'अयं मां निवर्तयति' की प्रतीति सर्वानुभवगम्य है। लिङ्-भिन्न के साथ 'नञ्' का अन्वय सामान्य रूप से 'न' का अन्वय लिर्थ के साथ किया जाता है परन्तु वेद में कुछ ऐसे भी स्थल हैं जहाँ 'न' का अन्वय बाध उपस्थित होने पर धात्वर्थ या सुबन्त पद के साथ भी किया जाता है। ऐसे दो प्रकार के उदाहरण मीमांसा में मिलते हैं - (1) 'तस्य व्रतम्' के प्रकरण में अर्थ सङ्गति न होने पर लक्षणा (पर्युदास) से 'नञ्' का अन्वय धात्वर्थ के साथ किया गया है। (2) 'यजतिषु ये यजामहे', में विकल्पः प्राप्ति से बचने के लिए 'न' का अन्वय लक्षणा (पर्युदास) से सुबन्त पद के साथ किया गया है। जैसे - धात्वर्थ से 'न' का अन्वय - स्नातक के कर्तव्य कर्मों के प्रकरण का प्रारम्भ 'तस्य व्रतम्' (ये स्नातक ब्रह्मचारी के अनुष्ठेय कर्म हैं) कहकर किया गया 405

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