Book Title: Siddha Saraswat
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Abhinandan Granth Prakashan Samiti

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Page 424
________________ सर्वथा क्षणिक न मानकर कथञ्चित् (द्रव्यापेक्षया) नित्य भी माना है। यदि बौद्धदर्शन सन्तति को कथञ्चित् नित्य मान लें तो जैनदर्शन से काफी साम्य हो जायेगा। आत्मा को सर्वथा नित्य मानने पर अथवा सर्वथा क्षणिक मानने पर बन्धमोक्ष, कर्म-कर्मफल आदि की व्यवस्था सम्भव नहीं है। सर्वथा नित्य मानने पर 'ममकार' (अहंभाव) से छुटकारा नहीं मिलेगा इसीलिए, भगवान् बुद्ध ने आत्मा को अनित्य, क्षणिक, अव्याकृत, अनात्म कहा। विज्ञान जो चेतनारूप है, वही वस्तुतः आत्मा है। नाम चाहे जो दिया जाए। स्वरूप भिन्न हो सकता है जैसे अन्य दर्शनों में आत्मा के स्वरूप में भिन्नता देखी जाती है। चार्वाक दर्शन का अनात्मवाद है, क्योंकि वे चार भौतिक तत्त्वों से भिन्न चैतन्य को नहीं मानते। बौद्धदर्शन में रूप-स्कन्ध (चार भौतिक तत्त्वों से निर्मित शरीर) से पृथक् नाम स्कन्ध (वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान स्कन्ध) को भी पृथक् स्वीकार किया है। इससे सिद्ध होता है कि भगवान् बुद्ध ने आत्मा में होने वाली प्रबल आसक्ति (मोह) को हटाने के लिए अनात्मवाद कहकर भी विज्ञान, कर्म, सत्ता, कर्मफलविपाक, वासना, स्मृति, प्रत्यभिज्ञन, प्रत्यक्ष-अनुमान प्रमाण, पुनर्जन्म, स्वर्गनरक-व्यवस्था, उपादान-कारण व्यवस्था, करुणा, अष्टाङ्गमार्ग आदि का उपदेश दिया। यदि उन्हें आत्मतत्त्व (चेतना या ज्ञान) स्वीकार्य नहीं होता तो ये प्रतिपादन व्यर्थ हो जाता। सभी तत्त्व क्षणिक हैं, यह तो प्रत्यक्षगम्य है, परन्तु वह सर्वथा नष्ट नहीं होता, उसका अवस्थान्तरण होता है, मूलस्वरूप (मूल गुण) सुरक्षित रहता है। 'विज्ञान' गुण है तो उसका कोई आधार भूत द्रव्य होना चाहिए क्योंकि गुणी (द्रव्य = ज्ञाता) के बिना गुण नहीं रह सकता। यदि उसे गुण न मानें तो भी वह ज्ञान ही आत्मा होगा। जैन दर्शन में ज्ञान और आत्मा में कथञ्चित् अभेद माना है। वेदान्त में भी ज्ञानरूप आत्मा है। न्याय वैशेषिक दर्शन में ज्ञान गुण को आत्मा से पृथक् मानकर समवाय सम्बन्ध माना है, वेदान्तियों ने अभेद सम्बन्ध माना है। उपसंहार भगवान् बुद्ध की जीवनी से पता चलता है कि दुःखों से कैसे छुटकारा पाया जाए? इसके लिए वे घर छोड़कर ध्यान-साधना करते हैं। उन्होंने जाना गीली लकड़ी से आग नहीं उत्पन्न हो सकती, वैसे ही विषय-भोग तृष्णा या आसक्ति से गीले आत्मा को दुःख से मुक्ति नहीं मिल सकती। इसके साथ ही उन्होंने यह जाना कि आत्मा में आसक्ति सबसे बड़ा रोड़ा है तो उन्होंने उस पर प्रहार किया। अत: आत्म-विचार को अव्याकृत तथा अप्रयोजनीय मानकर क्षणिकवाद, अनीश्वरवाद का उपदेश दिया। तत्कालीन उच्छेदवाद आदि का निराकरण करके मध्यममार्ग अपनाया। भगवान् बुद्ध के उपदेशों को ठीक से न समझने के कारण उनके कई सैद्धान्तिक मत-मतान्तर बन गए। मीमांसादर्शन में निषेध-मीमांसा मीमांसा-दर्शन कर्मकाण्डप्रधान दर्शन है। सामान्यतः कर्म विधि-निषेधात्मक दो प्रकार के हैं-1. विधिरूप कर्म--जिस कर्म के करने से मनुष्य का कल्याण होता है या जिससे मनुष्य के जीवन का प्रयोजन (लक्ष्य) सिद्ध होता है। जैसे-स्वर्ग प्राप्ति का साधन याग। 2.निषेधात्मक कर्म-जिस कर्म के करने से मनुष्य का अहित (अनर्थ) हो या जिससे मनुष्य के जीवन का प्रयोजन सिद्ध न होता हो। जैसे -नरक प्राप्ति का साधन ब्रह्महत्या। कर्मकाण्ड को दृष्टि में रखते हुए वेद के पाँच भाग किए जाते हैं--(1) विधि, (2) मन्त्र, (3) नामधेय, (4) निषेध और (5) अर्थवाद। इन पाँचों में भी प्रधानता विधि और निषेध की है। निषेध का ज्ञान 'नञ्' से कराया जाता है जिसके अन्तिम वर्ण'' का लोप करके वाक्य में 'न' का प्रयोग किया जाता है। उत्तरपद के रहने पर 'न' को 'अ' हो जाता है और अजादि उत्तरपद रहते 'अन्' हो जाता है। जैसे - अब्राह्मणः, अनीश्वरः आदि। विधिवाक्यों से प्रवर्तन का और निषेध वाक्यों से निवर्तना का प्रतिपादन और उनको प्रयोजनवत्ता विधिवाक्य मनुष्य को स्वर्गादि इष्ट-प्राप्ति हेतु प्रेरित करते हैं और बतलाते हैं कि स्वर्गादि इष्टों के साधन याग आदि कर्म हैं जिन्हें अवश्य सम्पन्न करना चाहिए। इस प्रेरणा के कारण ही विधिवाक्यों की सार्थकता है। इसी प्रकार निषेधवाक्यों की भी सार्थकता है क्योंकि वे मनुष्य को उन कर्मों से निवृत्त करते हैं जिनसे नरकादि अनिष्ट की प्राप्ति सम्भव है। इस तरह विधिवाक्य जहाँ स्वर्गादि इष्ट के साधनभूत कमों में प्रवृत्त करके कल्याण-सम्पादन करते हैं वहीं 404

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