________________ षोडशी को ग्रहण नहीं करता है)। यहाँ विकल्प को बचाने के लिए पर्युदास का आश्रय नहीं लिया जा सकता क्योंकि पर्युदास से न का अन्वय या तो षोडशी से करना पड़ेगा या अतिरात्र से षोडशी से नञ् का अन्वय करने पर अर्थ होगा 'अतिररात्र में षोडशी-व्यतिरिक्त पदार्थ को ग्रहण करता है)। अतिरात्र से नञ् का अन्वय करने पर अर्थ होगा 'अतिरात्र से भिन्नयाग में षोडशी का ग्रहण करता है ये दोनों ही अर्थ सङ्गत न होने से (प्रत्यक्ष विधिविरोधी होने से) अगत्या विकल्प स्वीकार करना पड़ता है। विकल्प होने पर नञ् का अन्वय लिङ् से ही करना होगा। रागप्राप्त में निषेध ही पुरुषार्थ जहाँ राग से प्राप्त का निषेध होता है वहाँ प्रतिषेध ही पुरुषार्थ होता है, विकल्प नहीं / जैसे-'न कलशं भक्षयेत्' में कलजभक्षण जो राग से प्राप्त है, का भक्षणनिषेध ही पुरुषार्थ है। निषेध पुरुषार्थ होने से ना का अन्वय लिडर्थ के साथ ही होगा। शास्त्रप्राप्त का निषेध कहीं-कहीं विकल्प नहीं होता - सामान्यतः शास्त्रप्राप्त अर्थ का निषेध होने पर विकल्प माना जाता है परन्तु कुछ ऐसे भी स्थल हैं जो परिस्थिति विशेष में विकल्प नहीं माने जाते। वहाँ निषेध ही पुरुषार्थ माना जाता हैं। जैसे-दान देना, होम करना आदि दैनन्दिन जीवन के कुछ कृत्य शास्त्रों में श्रेयस्कर कहे गए हैं परन्तु 'दीक्षितो न ददाति, न जुहोति' (यज्ञ में दीक्षित व्यक्ति को न दान देना चाहिए और ने होम करना चाहिए) में दान और होम का निषेध किया गया है। 'दान देना' और 'होम करना' शास्त्रसम्मत कर्तव्यकर्म है परन्तु दीक्षित व्यक्ति के लिए इनका निषेध किया जा रहा है। यहाँ निषेध ही पुरुषार्थ है अन्यथा अनर्थ का कारण बन सकता है। इसी प्रकार स्वस्त्री के साथ भोग जैसे शास्त्रसम्मत होने पर भी यज्ञादि धार्मिक अनुष्ठान करने वाले के लिए उसका निषेध है क्योंकि स्त्रीभोग से यज्ञ में वैगुण्यप्राप्ति सम्भव है। इस तरह यहाँ दो शास्त्र वाक्यों में विकल्प न मानकर निषेध ही माना गया है। उपसंहार इस तरह इस विवेचन से सिद्ध होता है कि जिस तरह विधि इष्ट सम्पादक होने से पुरुषार्थ है उसी प्रकार निषेध भी अनिष्टनिवारक होने से पुरुषार्थ है। विधि से जैसे प्रवर्तना का बोध होता है वैसे ही निषेध से निवर्तना का बोध होता है। इस निवर्तना का बोध तभी सम्भव है जब 'नञ्' का अन्वय लिडर्थ से किया जाए। कुछ ऐसे भी स्थल हैं जहाँ नञ् का अन्वय लिडर्थ से करने पर बाध उपस्थित होता है तब वहाँ पर नञ् का अन्वय एक वाक्यता लाने के लिए धातु के साथ या विकल्प प्राप्ति रोकने के लिए सुबन्त के साथ किया जाता है। ऐसे स्थलों में निवर्तना की प्रतीति नहीं होती अपितु विधि बन जाने से प्रवर्तना की प्रतीति होती है। अन्यत्र सर्वत्र नञ् का लिडर्थ से अन्वय करके प्रतिषेध (निवर्तना) का ही आश्रय लिया जाता है। 'नातिरात्रे' आदि में पर्युदास से अर्थसङ्गति न बैठने पर अगत्या विकल्प माना गया है। विकल्प होने पर नञ् से निषेध ही अर्थ करना होगा। विकल्प में विधि और प्रतिषेध दोनों क्रत्वर्थ होने से अनर्थ हेतु नहीं है। रागत: प्राप्ति में निषेध ही पुरुषार्थ है। टिप्पणी 1. न लोपो नञ्. / तस्मान्नुऽचि। पा0 अ0 6.37, 74 2. मीमांसान्यायप्रकाश, ( काशी संस्कृत सीरीज ) पृ0 155-156 3. पर्युदास-इसमें विशेष को छोड़कर सामान्य की ओर प्रवृत्ति होती है। इसमें कार्य का सङ्कोच विशेष से भिन्न में होता है। जैसे-अनुयाज विशेष कर्म हैं, याग सामान्य कर्म। अत: पर्युदास से 'ये यजमाहे 0' मन्त्र का विधान सीमित अनुयाजों से भिन्न समस्त यागों में होता है। मीमांसान्यायप्रकाश में लिखा है-'पर्युदासः सः विज्ञेयो यत्रोत्तरपदेन नञ् / पृ0 160, 172, अर्थसंग्रह में कहा है-पर्युदास तदन्यमात्रसङ्कोचार्थ इति ततो भेदः / पृ0 202 4. विकल्पादेकप्रतिषेधेऽपि प्रतिषिध्यमानस्य नानर्थहेतुत्वम्, विधिनिषेधोभयस्यापि कृत्वर्थत्वात् / अर्थसंग्रह,(चौखम्भा) पृ0 206 5. अर्थसंग्रह ( उद्धृत्, कामेश्वर टीका ) पृ0 184 6. कुत्रचिद्विकल्पप्रसक्तावप्यनन्यगत्या प्रतिषेधाश्रयणम्। अर्थसंग्रह, पृ0 202 7. नामधात्वर्थयोगी तु नैव न प्रतिषेधकः। वदत्यब्राह्मणधर्मावन्यमात्रविरोधिनौ।। उद्धृत, मीमांसान्यायप्रकाश, पृ0 162 407