Book Title: Siddha Saraswat
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Abhinandan Granth Prakashan Samiti

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Page 426
________________ है और उस प्रकरण में 'नेक्षेतोद्यन्तमादित्यम्' (उगते हुए और अस्त होते हुए सूर्य को न देखें) वाक्य आया हुआ है। यहाँ 'तस्य व्रतम् से प्रवर्तना का बोध हो रहा है और 'नेक्षेत०' से निवर्तना का। इस तरह यहाँ व्रत की करणीयता के साथ एकवाक्यता नहीं बन रही है। यदि यहाँ 'ईक्षेत' पद होता तो एकवाक्यता बन जाती। 'तस्य व्रतम्' में कर्म-सम्पादन पर जोर दिया गया है जबकि 'नेक्षेत' में सम्पादन के लिए कुछ भी नहीं है। अत: दोनों वाक्यों में एकवाक्यता बैठाने के लिए यहाँ लक्षणावृत्ति (पर्युदास) का आश्रय लेकर ईक्षण-विरोधी 'अनीक्षण-सङ्कल्प अर्थ करेंगे अनीक्षण सङ्कल्प एक मानस व्यापार है जिसे सम्पन्न किया जा सकता है। इस तरह यहाँ 'न' का धात्वर्थ के साथ अन्वय करने पर अंभिधावृत्ति से अनीक्षण अर्थ हुआ और लक्षणावृत्ति से 'सङ्कल्प' अर्थ आया। यह 'अनी ण सङ्कल्प' ब्रह्मचारी का कर्तव्य कर्म बन गया और इससे प्रवर्तना का बोध, हुआ-'आदित्यविषयकानीक्षणसङ्कल्पेन भावयेति वाक्यार्थः' (आदित्यविषयक अनीक्षणसङ्कल्प से भावना करे)। किसकी भावना करे ? ऐसी साध्याकांक्षा होने पर कहा है 'एतावता हैनसा वियुक्तो भवति' (ऐसी भावना से पापमुक्त होता है)। इस तरह एकवाक्यता करने के लिए 'नञ् का अन्पय यहाँ लिङ् से न कर के धात्वर्थ के साथ किया गया है। यहाँ लक्षणा से अनीक्षणसङ्कल्प अर्थ के स्थान पर कायिक व्यापार रूप 'नयनपिधान' (नेत्र ढकना वस्त्रादि से) अर्थ नहीं किया जा सकता क्योंकि नयनपिधान शाब्दी भावना का विषय नहीं बन सकता है। शाब्दी भावना का विषय वही बन सकता है जिसका विधान : किसी स्वतन्त्र विधिवाक्य से हो। नयनपिधान% किसी विधिवाक्य से यहाँ विहित नहीं है। अतः अनीक्षणसङ्कल्प अर्थ ही ठीक है। सुबन्त से 'नञ्' का अन्वय आपस्तम्ब श्रौतसूत्र (24.13.5) में 'यजतिषु ये यजामहं करोति, नानुयाजेषु' (यागों में ये यजामहे' मन्त्र का पाठ करना चाहिए, अनुयाजों में नहीं) वाक्य आया है। श्रोत सूत्र ग्रन्थ भी वैदिक साहित्य का अंश होने से यह एक शास्त्रवाक्य है। मीमांसकों के सामान्य नियम के अनुसार एक शास्त्र वाक्य से प्राप्त अर्थ का दूसरे शास्त्र वाक्य से बाध होने पर वहाँ बाध नहीं माना जाता अपितु विकल्प स्वीकार किया जाता है। विकल्प मानना एक दोष है परन्तु शास्त्रप्राप्त होने से अगत्या विकल्प मानना पड़ता है। यदि उस विकल्प से बचा जा सके तो अवश्य बचना चाहिए। 'विकल्प' वाक्य दोष है और 'लक्षणा' पद दोष। वाक्य दोष से पददोष छोटा होता है। अब यहाँ यदि विकल्प स्वीकार करके 'न' का अन्वय 'लिङ् से करते है तो वैकल्पिक प्रयोग इस प्रकार होंगे-(1) 'अनुयाजेषु 'ये यजामहं करोति। और (2) 'अनुयाजेषु 'ये यजामहं न करोति'। इस तरह किसी एक विकल्प को स्वीकार करने पर अन्य का अप्रामाण्य निश्चित बनेगा। इसके अतिरिक्त दो अदृष्टों की कल्पनारूप गौरव दोष भी होगा क्योंकि वैकल्पिक स्थिति में जैसे एक से अनुष्ठान करना अभीष्ट होता है उसी प्रकार दूसरे से न करना भी अभीष्ट होता है। अर्थात् विकल्प में विधि और विषेध दोनों पुरुषार्थ हैं। इस विकल्पप्रसक्ति से बचने के लिए यहाँ 'न' का अन्वय सुबन्त पद के साथ करके पर्युदास लक्षणा से अनुयाजव्यातिरिक्त अर्थ करेंगे-'अनुयाजव्यतिरिक्तेषु यजतिषु 'ये यजामहं' इति मन्त्रं कुर्यादिति वाक्यार्थबोध:' (अनुयाजों से भिन्न यागों में ये यजामहं इस मन्त्र का उच्चारण करना चाहिए ) / कहा है - यत एव विकल्पोऽयं प्रतिषेधे प्रसज्यते / ___ अतस्तत्परिहाराय पर्युदासाश्रयो वरम् / / वस्तुतः विकल्प वहीं माना जाता है जहाँ बाध्यबाधकभाव हो और बाध्यबाधकभाव निरपेक्ष (अपनी अर्थपूर्ति के लिए दूसरे पर निर्भर न रहना) वाक्यों में होता है, सापेक्ष वाक्यों में नहीं / 'यजतिषु०' वाक्य सापेक्ष वाक्य है। अत: उसमें बाध्यबाधकभाव नहीं है / 'पदे जुहोति' (गाय के सप्तम पदचिन्ह पर हवन करना चाहिए ), 'आहवनीये जुहोति (आहवनीय नामक अग्नि में हवन करना चाहिए) इनमें विकल्प है क्योंकि ये निरपेक्ष वाक्य हैं। इसी तरह ब्रीहिभिर्यजेत यवैर्वा (व्रीहिभिर्यजेत, ययवैजेत) में बिकल्प है। यहाँ पर्युदास से काम नहीं बन सकता है। विकल्प में लिङर्थ से नञ् का अन्वय विकल्प होने पर 'न' का लिडर्थ से अन्वय करके प्रतिषेध का ही आश्रय लिया जाता है क्योंकि वहाँ दूसरी कोई गति नहीं होती। जैसे 'अतिरात्र' नामक याग में 'षोडशी' (ग्रह - पात्र विशेष) ग्रहण विहित भी हैं और निषिद्ध भी। चाहे तो षोडशी का ग्रहण करे और यदि न चाहे तो न करे। दोनों परिस्थितियों में पृथक्-पृथक् अपूर्व (अदृष्ट) उत्पन्न होगा, अनर्थ नहीं होगा। दोनों अपूर्वो से इष्ट की सिद्धि होगी। पूरा उदाहरण इस प्रकार है'अतिरात्र षोडशिनं गृह्णाति, नातिरात्रे षोडशिनं गृह्णाति (अतिरात्रयाग में षोडशी को ग्रहण करता है। अतिरात्रयाग में 406

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