Book Title: Siddha Saraswat
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Abhinandan Granth Prakashan Samiti

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Page 421
________________ मार्ग है। यह मध्यम मार्ग ही चार आर्य सत्यों का सही मार्ग है- (1) दुःख, (2) दुःख-समुदाय, (3) दुःखनिरोध और (4) दुःखनिरोध मार्ग। इसमें न तो स्त्री-पुरुष लिङ्ग का और न उच्च-नीच जाति का भेदभाव है। कोई भी इस मार्ग से निर्वाण को प्राप्त कर सकता है। निर्वाण को उन्होंने दुःखों की परम्परा (जन्म-मरण की द्वादशनिदानरूप कारणकार्य परम्परा) का निरोध मात्र बतलाया, उसे सुखप्राप्ति का स्थान नहीं कहा। इसके लिए उन्होंने क्षणिकवाद (अनित्यवाद), अनीश्वरवाद तथा अनात्मवाद (आत्मा की नित्यता का निषेध) का सहारा लिया। उन्होंने अनुभव किया यदि सृष्टिकर्ता ईश्वर माना जायेगा तो वह भी हमारी तरह रागी-द्वेषी होगा। यदि संसार के पदार्थों को कूटस्थ नित्य माना जायेगा तो दृश्यमान परिवर्तन तथा बन्ध-मोक्ष की व्यवस्था नहीं हो सकेगी। जो आज जैसा है वह कल भी वैसा ही रहेगा जो प्रत्यक्ष विरुद्ध है। इसी तरह यदि आत्मा को नित्य माना जायेगा तो हम कभी भी दोनों अन्तों (इहलौकिक और पारलौकिक सुखभोगों) की आसक्ति (कामना, राग, इच्छा, तृष्णा, मोह आदि) से विरक्त नहीं कर सकेंगे। जहाँ आसक्ति है वहाँ दुःख है और आसक्ति (इन्द्रिय सुखों की अथवा अतीन्द्रिय सुखों की)के रहने पर दुःखनिरोध सम्भव नहीं है। इसीलिए उन्होंने आत्मा की भी नित्यता तथा उसकी स्वतन्त्र सत्ता का निषेध किया परन्तु विज्ञान की सन्तान-परम्परा मानकर तथा पुनर्जन्म आदि को स्वीकार करके प्रकारान्तर से न होते हुए भी आत्मा की स्वतन्त्र सत्ता को जैनों की तरह मान लिया। जैन आत्मा को पर्याय दृष्टि से क्षणिक मानकर भी द्रव्यदृष्टि से नित्य मानते हैं। इसी तरह बौद्धों को भी सन्तान-परम्परा की दृष्टि से नित्यता मानना पड़ेगी क्योंकि ऐसा माने बिना उनके सिद्धान्त (संस्कार रूप कर्मवाद, पुनर्जन्म, बुद्ध की महाकरुणा, दुःखनिरोध-मार्ग की आवश्यकता आदि) निरर्थक हो जायेंगे। विज्ञानाद्वैतवाद का आलयविज्ञान तो इसी दिशा में सङ्केत दे रहा है। त्रिक्रियावाद भी यही कह रहा है। त्रिक्रियावाद से तो अवतारवाद (ईश्वरावतारवाद) की गन्ध भी आती है। चार आर्यसत्य संसार में सभी प्राणी 'तृष्णा' के कारण अतृप्त हैं, अतः दुःखी हैं। इच्छायें अनन्त हैं जो कभी पूर्ण नहीं होती। इच्छाओं का होना ही दुःख है। संसार दुःख रूप है ऐसा सभी आध्यात्मिक दर्शन स्वीकार करते हैं। इन दुःखों का एक कारण-कार्य परम्परा है क्योंकि कोई भी कार्य बिना कारण के नहीं होता है। इसीलिए भगवान् बुद्ध ने अपने चार आर्य सत्यों में से प्रथम दो सत्य बतलाए- दुःख और दुःख समुदाय। प्रतीत्यसमुत्पाद (मध्यमा प्रतिपदा)- भगवान् बुद्ध ने द्वितीय आर्य सत्य दुःख समुदाय को कारण समुदाय कहा है। यही कारण-कार्य शृङ्खला, 'द्वादशनिदान', प्रतीत्यसमुत्पाद तथा जन्म-मरण चक्र भी कहलाती है। प्रत्यय अर्थात् कारण से कार्य की उत्पत्ति का नियम प्रतीत्यसमुत्पाद है, जो बौद्धदर्शन का आधारस्तम्भ है। यः प्रतीत्यसमुत्पादं पश्यतीदं स पश्यति। दुःखं समुदयं चैव निरोधमार्गमेव च।। - मा.का. 24.40 संख्या में बारह होने से 'द्वादशनिदान' कहलाते हैं जो निम्न प्रकार है - (1) अविद्या (अज्ञान या मोह)। (2) संस्कार (कुशल-अकुशल कर्म/पूर्वजन्म की कमवस्था)। (3) विज्ञान (चेतना)। (4) नामरूप (पञ्च-स्कन्ध)। (5) षडायतन (पाँच इन्द्रियाँ और मन)। (6) स्पर्श (इन्द्रिय-मन-विषय का संयोग)। (7) वेदना (सुख-दुःखादि का अनुभव)। (8) तृष्णा (विषय-भोग-आसक्ति/अविद्या के बाद यही जन्म में प्रमुख कारण है) (9) उपादान (विषय सामग्री का ग्रहण/इसमें आत्मोपादान भी है, उसे नित्य मानकर आसक्ति/ ये 4 हैं- काम, दृष्टि, शीलव्रत और आत्मा)। (10) भव (इस जन्म के कर्म)। (11) जाति (जन्म- शरीर धारण की क्रिया या पञ्चस्कन्धों का स्फुरण)। (12) जरा-मरण (बृद्धावस्था) और मृत्यु/स्कन्धों का टूटना जीवितेन्द्रिय का उच्छेद मरण है)। 401

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